ओवरसीयर की नौकरी से त्यागपत्र
देने के बाद जगमोहन फर्नीचर की दुकान में जाकर बैठने लगे
৷ लेकिन वे अब पहले की तरह रंदा नहीं
खिंचवाते थे ৷ उनके गुरुदेव भवानी प्रसाद मिश्र जी उस समय
तक बैतूल से जा चुके थे इसलिए ऐसा कोई नहीं था जिनसे वे अपने मन की बातें कह सकें । हाँ उनके दो मित्र अवश्य थे कमल जायसवाल और मदन श्रीवास जो उनके बचपन के
साथी थे ৷ मदन उस
समय कलेक्टर कार्यालय में बाबू की नौकरी में लग चुके थे और कमल स्वयं का
फोटोग्राफी का व्यवसाय शुरू कर चुके थे ৷
उन्होंने सलाह दी कि वहीं कोई छोटा मोटा काम ढूंढ लें घर के घर में रहेंगे ৷ लेकिन जगमोहन बाबू के सपनों का संसार
इतना छोटा नहीं था ৷ फिर जिस
शहर में ओवरसीयर रहे उसी शहर में किसी दफ्तर में क्लर्की करना उन्हें कैसे मंज़ूर
होता ৷आसपास तमाम शुभचिंतक लोगों के होते हुए
भी वे नितांत अकेले थे ৷ यह अकेलापन भौतिक नहीं था लेकिन भीतर
ही भीतर वे अपने आप को बहुत अकेला महसूस कर रहे थे ৷ कहने को वे अर्हताप्राप्त इंजिनियर
थे लेकिन अब वे किसी ऐसे महकमे में नौकरी
नहीं करना चाहते थे जहाँ घूसखोरी, बेईमानी और झूठ का साम्राज्य हो । खुद का
व्यवसाय करने लायक पूंजी उनके पास थी नहीं और उन दिनों इस तरह के प्राइवेट संस्थान
होते नहीं थे जहाँ उनके लायक कोई काम हो ৷
बाबूलाल जी भी
विवश थे
৷ आज़ादी के समय केवल
राजनीतिक व्यवस्था में ही नहीं सामाजिक व्यवस्था में भी बहुत उथल पुथल हुई थी ৷ सरकारी
व्यवस्थाएँ बदल चुकी थीं ৷ अंग्रेज़ अफसरों
को फेयर वेल पार्टियाँ देकर उन्हें इंग्लैण्ड जाने वाले जहाज़ों में बिठाया जा चुका
था और अब सरकारी महकमों में देशी अफसरों का साम्राज्य था ৷ फर्नीचर बनाने
का काम मिलना वैसे भी बहुत कम हो गया था ৷ बाबूलाल जी एक पादरी साहब के संपर्क में रहे थे और
उनके प्रयासों से उनकी रूचि प्राकृतिक चिकित्सा और आयुर्वेद में बढ़ती जा रही थी ৷ बाबूलाल वैद्य
नाम के एक प्रसिद्ध चिकित्सक का बनना अभी भविष्य की गर्त में छुपा था ৷ फिलहाल तो
सीमित आमदनी में परिवार का खर्च चलाना
बहुत मुश्किल था इसलिए बेटे की कोई सहायता वे नहीं कर सकते थे ৷अपनी स्वीकार
की हुई बेरोजगारी से शर्मसार होकर जगमोहन अख़बारों की काली सफ़ेद लाइनों के बीच अपने
भविष्य की संभावनाएँ ढूंढ रहे थे ৷ अचानक एक दिन मध्य प्रांत के किसी अखबार में
उन्होंने चांदूर बाज़ार नामक एक कस्बे में किसी स्कूल शिक्षक की आवश्यकता के विषय
में पढ़ा ৷ इस नौकरी के लिए मैट्रिक की अर्हता पर्याप्त थी ৷ लेकिन शिक्षण क्षेत्र में जाने का अर्थ था फिर तीन
साल पीछे लौट जाना ৷ शिक्षा के क्षेत्र में उनका इंजीनियरिंग डिप्लोमाधारी होना
कोई मायने नहीं रखता था ৷ वैसे भी डिप्लोमा की अहमियत स्नातक की डिग्री जितनी
तो होती नहीं है इसलिए इतने साल पढ़ लेने के बाद भी वे ग्रेजुएट नहीं कहला सकते थे ।
एकेडेमिक क्षेत्र में उनकी योग्यता मैट्रिक पास ही थी ৷
समस्याएँ केवल
वर्तमान के आईने की चमकने वाली सतह पर ही नहीं दिखाई दे रही थीं वे कहीं पीछे पुते
हुए पारे में भी दर्ज थीं उन्हें हटाने के लिए उन्हें खुरचने का मतलब था आईने का
बर्बाद हो जाना
৷ घर से बाहर
जाने का अर्थ था, अकेले संघर्ष करना, अपने खर्चे सीमित करना, ख़ुद के आवास और भोजन
की व्यवस्था करना और अपनों से दूर अपने लिए एक नई दुनिया निर्माण करना ৷ पढ़ने के लिए बाहर जाना और नौकरी के लिए बाहर जाना इन
दोनों बातों में अंतर तो था ৷ वे एक ऐसे
दोराहे पर खड़े थे जहाँ उन्हें यह तो ज्ञात था कि यह मार्ग कहाँ जाते हैं लेकिन मार्ग
का चयन कर उस पर कदम रखने से पहले उन्हें गंभीरता से इस बारे में सोचना आवश्यक था ৷ कुछ दिनों तक मन बहलाने के लिए वे स्थानीय संस्थाओं
में, दुकानों में नौकरी के लिए आवेदन देते हुए चप्पलें घिसते रहे फिर उन्होंने दृढ़
होकर निर्णय लिया और चांदूर रेलवे के उस प्रायमरी स्कूल में नौकरी के लिए अर्जी दे
दी৷ कुछ ही समय में
वहाँ से जवाब आ गया ৷ प्राथमिक शाला के शिक्षक पद के लिए वहाँ उनका चयन हो चुका था
।बैतूल से लगभग सवा सौ किलोमीटर दूर स्थित चांदूर रेलवे एक छोटा सा क़स्बा था लेकिन शैक्षणिक दृष्टिकोण
से उसका विकास हो चुका था ৷ मध्यप्रांत जहाँ मूलतः हिंदी और मराठी भाषी लोग रहा
करते थे धीरे धीरे विकास की गति पकड़ रहा था ৷ वर्तमान
अमरावती ज़िले के अंतर्गत आने वाला यह क़स्बा राजनीतिक दृष्टि से काफ़ी सजग था ৷
जगमोहन बाबू अब
कोकास गुरूजी हो चुके थे स्थानीय निवासियों ने उनके भोजन और रहने की व्यवस्था कर
दी
৷ गुरूजी हिन्दी के विशेषज्ञ थे और उस समय मराठी में पढ़ाने
की कोई अनिवार्यता भी नहीं थी फिर भी उन्होंने तुरंत मराठी सीखनी प्रारंभ कर दी और
कुछ ही समय में मराठी पर भी उनका अधिकार हो गया ৷ छुट्टियाँ
होते ही वे बैतूल लौट जाते थे और फिर माता-पिता और काकाओं के सान्निध्य में रहकर
अपने फेफड़ों में ढेर सारी प्राण वायु भरकर चांदूर आ जाते थे ৷चांदूर रेलवे उन्हें
रास आ रहा था लेकिन वे जानते थे इस मैट्रिक पास योग्यता के साथ भविष्य के सुनहरे
स्वप्न देखना शेखचिल्ली के ख़्वाब की तरह होगा ৷ नौकरी छोड़ने
के तुरंत बाद वे सागर यूनिवर्सिटी से बी ए प्रथम वर्ष की प्राइवेट परीक्षा का
फॉर्म भर ही चुके थे ৷ अब उनकी दोहरी ज़िंदगी शुरू हो चुकी थी वे शिक्षक भी थे और
छात्र भी ৷ ज़िंदगी करवट ले रही थी৷
अभावों से भरा यह
जीवन उन्होंने खुद चुना था । अपने बड़े भाइयों की तरह वे किसान या बढ़ई नहीं होना
चाहते थे । यद्यपि इसमें कोई बुराई नहीं थी लेकिन फिर उनकी तीन साल की पढ़ाई व्यर्थ
हो जाती और उनके गुरुदेव भवानी दादा के स्वप्न भी मिटटी में मिल जाते इसलिये स्कूल
में शिक्षक की नौकरी करते हुए अपने खर्च पर उन्होंने बी.ए. किया, फिर जबलपुर के
प्रांतीय शिक्षण महाविद्यालय से बी.टी. किया, फिर हिन्दी साहित्य में एम ए किया,
और प्रयाग से साहित्यरत्न की परीक्षा पास कर ली ।
जीवन पथ पर आगे बढ़ते हुए वे अपने गुरु भवानी प्रसाद
मिश्र जी के अहसान को कभी नहीं भूले । वे हमेशा कहते थे कि अगर सर नहीं होते तो
शायद वे जीवन भर बैतूल में उसी फर्नीचर की दूकान में ही काम करते रहते ৷ भवानी प्रसाद
मिश्र जी के बारे में बाते करते हुए वे गौरवान्वित हो उठते ৷ वे अक्सर कहते
थे कि “एक कवि समाज की बेहतरी के लिए कविता लिखता है लेकिन वह जब तक समाज में
दीन दुखियों, गरीबों के उत्थान लिए
वास्तविक रूप से कार्य नहीं करता है तब उसका लिखना सार्थक नहीं होता है ।“
एक बार मैंने बाबूजी से पूछा “आप हिन्दी के इतने बड़े कवि के शिष्य रहे , आपने
कभी कोई कविता नहीं लिखी ? “ उन्होंने बताया कि स्कूल के दिनों में वे एक कविता
लिख कर भवानी प्रसाद मिश्र जी के पास ले गए थे ৷तब उन्होंने उनकी कविता की प्रशंसा की थी लेकिन
उनसे यह भी कहा था कि तुम्हारा काम कविता लिखना नहीं है, तुम्हारा जन्म देश की
सेवा करने के लिए और हिन्दी की सेवा करने के लिए हुआ है ৷ पहले दायित्व का निर्वाह तो उन्होंने बचपन से प्रारंभ कर दिया था ৷ आगे चल कर बाबूजी महाराष्ट्र में हिन्दी के प्रचारक बने ৷ कविताएँ तो उन्होंने नहीं लिखीं लेकिन
कुछ लेख अवश्य लिखे ৷ लेकिन वे जीवन भर भवानी भाई को याद करते रहे ৷ वे हमेशा कहते थे कि “मैं
जो कुछ हूँ मिश्रा सर की वजह से हूँ ৷”
चांदूर रेलवे के बाद इस
बीच वे कुछ समय के लिए अमरावती जिले की तहसील मोर्शी के अंतर्गत आनेवाले एक गाँव
उमरखेड भी पहुँच गए ৷ वहाँ भी उन्हें शिक्षक की नौकरी मिली ৷ यह नौकरी चांदूर की नौकरी से कुछ बेहतर थी ৷ फिर वे अपने छात्र छात्राओं के बीच बहुत लोकप्रिय भी
थे ৷ एक बार जब वे
बैतूल लौटे तो बाबूलालजी ने उन्हें बताया कि वे झाँसी में रहने वाले दरोगा साहब
दुर्गा प्रसाद शर्मा की बिटिया शीला से उनका रिश्ता तय कर चुके हैं और बस उन्हें
बारात लेकर जाना है ৷
मेरी माँ
‘झाँसी वाली दुल्हन‘ बनकर बैतूल के हमारे परिवार में आ गई
৷ उस समय बाबूजी
उमरखेड में थे ৷ माँ कुछ समय के लिए उमरखेड पहुँची ৷ उत्तर प्रदेश
की एक लड़की के लिए महाराष्ट्र का वह वातावरण बिलकुल ही नया था लेकिन उन्होंने धीरे
धीरे उसे समझना प्रारम्भ किया ৷ उमरखेड के बारे में माँ एक किस्सा सुनाती थी ৷माँ उन दिनों
बस उमरखेड आई ही थी कि एक दिन उनके घर में चोरी हो गई ৷ माँ सारे जेवर
एक बड़ी सी टीन की पेटी में रखती थी ৷ एक दिन सुबह सुबह लगभग चार बजे किसी देहाती चोर ने
घर में प्रवेश किया और चुपचाप वह पेटी उठाकर ले गया ৷ उसे पता था कि
इस घर में नई दुल्हन आई है इसलिए अच्छे खासे जेवर तो यहाँ मिल ही जायेंगे ৷पेटी में ताला
लगा था इसलिए उसे तोड़ना ज़रूरी था ৷ घर में ही
तोड़ता तो पकड़ा जाता इसलिए वह पेटी लेकर पास के खेत में चला गया ৷इससे पहले कि
वह पेटी का ताला तोड़ पाता सुबह सुबह लोटा लेकर जाने वाली महिलाओं के समूह ने उसे
देख लिया ৷ उनके शोर मचाते
ही वह भाग गया और पेटी सही सलामत घर में वापस आ गई ৷
माँ का उमरखेड
निवास बहुत अल्प समय के लिए रहा
৷ उसके बाद बाबूजी का चयन बी एड के लिए जबलपुर स्थित
प्रांतीय शिक्षण महाविद्यालय में हो गया और वे साल भर के लिए वहाँ चले गए ৷ माँ का स्थायी
ठिकाना एक वर्ष के लिए बैतूल में हो चुका था ৷ जबलपुर में एक
वर्ष बिताने के पश्चात बाबूजी जैसे ही
वापस आये नागपुर के हिंदी भाषी संघ के विद्यालय में शिक्षक के पद के लिए
उनका चयन हो गया৷ शिक्षक के लिए अब वे पूरी तरह से क्वालिफाइड थे ৷ नागपुर शहर भी
बड़ा था और बेहतर भविष्य के लिए यहाँ बहुत गुंजाइश थी ৷ नागपुर में
रहते हुए ही उन्हें पुलिस ट्रेनिंग स्कूल में इंस्ट्रक्टर के पद का ऑफर मिला और
उन्होंने वह भी ज्वाइन कर लिया ৷नागपुर के इस
पुलिस ट्रेनिंग स्कूल में उनका रुतबा तो बहुत था लेकिन उन्हें बच्चों को पढ़ाने में जो आनंद आता था वैसा आनंद बड़ी उम्र के पुलिस
कर्मियों को मनोविज्ञान पढ़ाने में नहीं आता था ৷ इस बीच उन्होंने हिंदी साहित्य में एम ए भी कर लिया
था और प्रयाग से हिंदी साहित्यरत्न की परीक्षा भी पास कर ली थी ৷ अब उनके पास अवसरों की कमी नहीं थी ৷ वे बेहतर
नौकरी की तलाश में लगे थे और उन्हें यह अवसर मिला जब वे भंडारा के बेसिक ट्रेनिंग
कॉलेज में शिक्षक बनकर आये

अपनी युवावस्था
में ही बाबूजी ने यह तय कर लिया था कि भले ही वे सरकारी नौकरी में रहें या ना रहें
लेकिन उन्हें जीवन भर दर दर भटकना नहीं है
৷ इसलिए बैतूल से निकलकर चांदूर, उमरखेड,नागपुर होते हुए जब
वे भंडारा आये तो यह छोटा सा शहर उन्हें पसंद आ गया ৷ यह उनके जन्मगृह बैतूल से अधिक दूर भी नहीं था ৷ फिर यही रहकर उन्होंने नागपुर विश्वविद्यालय से
इतिहास में एम ए किया और एम एड की परीक्षा पास की ৷ बरसों बरस किराये के मकान में रहने के बाद उन्होंने
यहीं मकान बना लिया और जीवन के अंत तक वे यहीं रहे ৷ अब उनकी दो संतानें अर्थात मेरे छोटे भाई और बहन
भंडारा में अपना घर बसा चुके हैं ৷
शरद कोकास