16 जुलाई 2021

12.कट चाय,खर्रा और गाँधीजी का चश्मा

मध्य सदी का मध्य प्रांत : एक जन इतिहास- कड़ी क्रमांक 12 



भंडारा की गलियाँ और मोहल्ले तो अपने भीतरी गठन में किसी अर्ध शहरी और ग्रामीण क्षेत्र जैसे ही थे लेकिन एक जगह ऐसी थी जहाँ पहुँचकर लोग अपने शहरी होने होने का दावा कर सकते थे वह स्थान था भंडारा का प्रसिद्ध गाँधी चौक मेन रोड पर स्थित इस चौक में बापू की एक प्रस्तर प्रतिमा विद्यमान है महाराष्ट्र बनने के कुछ समय बाद यह प्रतिमा स्थापित की गई थी और उसके चारों ओर एक गोलाकार रेलिंग लगाई गई थी 

गान्धी जी की प्रस्तर प्रतिमा में शिल्पकार ने चश्मा नहीं बनाया था लेकिन हमारे कर्णधारों की ज़िद थी कि उन्हें चश्मा पहनायेंगे ही इसलिए उन्हें साल में दो बार दो अक्तूबर और तीस जनवरी के दिन  फूलों की माला के साथ चश्मे की फ्रेम भी पहनाई जाती थी   आश्चर्य की बात यह कि दो चार दिनों बाद वह फ्रेम वहाँ दिखाई नहीं देती थी बाद में ज्ञात होता था कि उसे कोई उतारकर ले जाता था निश्चित ही वह कोई  ज़रूरतमन्द होता होगा जिसे गाँधीजी से अधिक चश्मे की ज़रूरत रहती होगी । गाँधीजी के चश्मे की खाली गोल फ्रेम  उसके चश्मा बनाने के काम आ जाती होगी समय के साथ उस फ्रेम का चलन ख़त्म हो गया लेकिन अब वह फिर से लौटकर आ गई है और फैशन में है


 एक तरह से बाज़ार गाँधी चौक से ही शुरू होता था पर वैसे तो दिन भर ही लोगों का जमावड़ा रहता था लेकिन शाम के समय यहाँ भीड़ बढ़ जाती थी शहर के युवा और अधेड़ पुरुष टी स्टाल पर कप और बशी यानि प्लेट में मिलने वाली फुल चाय,कट चाय, हाफ चाय या बादशाही चाय की चुस्कियों के साथ अपनी शामें यहीं बिताते थे अमूमन दो व्यक्ति मिल कर एक फुल चाय लेते थे जो चीनी मिट्टी की कप बशी में दी जाती थी फिर उसमे से एक व्यक्ति आधी चाय बशी में उंडेल देता और सामने वाले को कप ऑफर करता बांटने वाले का खुद प्लेट में लेना अनिवार्य था यह एटिकेट्स और मैनर्स के तहत आता था विभाजन करने वाला ही अक्सर चाय का पैसा भी चुकाता था  चाय कप में मिले या प्लेट में विभाजित चाय का महत्व दोनों के लिए बराबर होता था आप चाहें तो इसका सम्बन्ध देश के विभाजन से भी जोड़कर देख सकते हैं

 


वैसे तो भंडारा के निवासी साल भर चाय पीते थे लेकिन गर्मी के दिनों में आदर्श टाकीज़ के गेट पर खड़े ठेले पर बिकने वाला ठण्डा लेमन सोडा पीकर अपनी प्यास बुझाते थे यह सोडा काँच की बोतल में मिलता था जिसके मुंह पर कार्बन डाई ऑक्साइड के दबाव से एक काँच की गोली अटकी होती थी जिसकी वज़ह से भीतर का सोडा बाहर नहीं आता था फिर ओपनर नुमा एक उपकरण से दबाव डालकर वह गोली भीतर सटकाई   जाती और पूरे प्रेशर से बाहर आने वाले सोडे को गटका जाता कभी कभी सोडे को ग्लास में निकालकर उसमे काला नमक और नीबू निचोड़कर उसे नया स्वाद भी दिया जाता उसके बाद चौक आने वाले पर्यटक टाइम पास के लिए वरहाड़ी, ठवकर या गोडबोले जर्दा का बना हुआ खर्रा तथा भरडा या चिकनी सुपारी युक्त चूने कत्थे वाले पान  खाकर अपने मुख की शोभा बढाते थे  यह पान भण्डार सिर्फ पान बेचने की दुकानें मात्र नहीं थे बल्कि यहाँ ग्राहकों के लिए बाकायदा बेंच आदि पर बैठने की व्यवस्था होती थी और फिर चौपाल की तरह मित्रों की गपशप चला करती थी बाद में पान ठेलों पर ज्यूक बॉक्स की तरह फरमाइश पर फ़िल्मी गानों के रिकॉर्ड भी बजाये जाने लगे थे

 


इसके अलावा भी उनके मनोरंजन के लिए गाँधी चौक पर और आसपास बहुत सारे आकर्षण के केंद्र थे जैसे सब्जी बाज़ार, नगरपालिका का भवन, एक सार्वजनिक पुस्तकालय, बुक स्टाल और आदर्श सिनेमाघर । किसी के घर गाँव से कोई आता तो उसे गाँधी चौक अवश्य लाया जाता यह जताने के लिए कि “देखो अब हम शहर में रहते हैं भंडारा के गाँधी चौक में आज भी यह दृश्य अपने आधुनिक रूप जैसे जूमो लाइट , बड़ी बड़ी इमारतों और जगमगाती दुकानों के साथ बढ़ते घनत्व में उपस्थित है  ।  

शरद कोकास 

                                                                                       

 

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

आइये पड़ोस को अपना विश्व बनायें