सामान्यत: अतीत को याद करने का कोई सर्वमान्य कारण नहीं
होता । हम अपने वर्तमान के सापेक्ष प्रतिदिन ऐसा अनेक बार करते हैं । प्रत्येक व्यक्ति जो अतीतजीविता से घृणा करता है
किन्हीं क्षणों में अपने अतीत को याद करता ही है ..हाँ उसमें स्थायित्व नहीं होता
। वस्तुतः अतीतजीविता और अतीत को याद करने में मूल अंतर यह है कि अतीत का याद करना
क्षणिक होता है जबकि अतीत में ही हमेशा जीना अतीतजीविता । अतीत को याद करते हुए कभी कभी हमारे भीतर ऐसा कोई
गुमान होता है कि हम उस उम्र में सर्वश्रेष्ठ थे और वर्तमान पीढ़ी अपने बचपन में उस
श्रेष्ठता को नहीं पा सकती । इसके विपरीत अतीत
का स्मरण आत्महीनता का अहसास भी कराता है, लेकिन उससे उबरना होता है, सामंजस्य या
विद्रोह यह दोनों ही उपाय हो सकते हैं । कुछ लोगों के लिए
यह स्मरण इसलिए भी आवश्यक होता है कि अतीत की स्मृति के बिना उनके लिए जीना कठिन होता
है ।
वस्तुतः स्मृति मनुष्य की परम्परा है और वर्तमान में
अर्जित ज्ञान का मूल स्त्रोत है । हमारे अवचेतन में स्मृति व्यक्तिगत होते हुए भी
वह सामूहिक स्मृति होती है । मनोवैज्ञानिक
कार्ल जुंग ने इसी को सामूहिक अवचेतन कहा है । इसलिये अपने बचपन को याद करना केवल आत्मपरकता नहीं है इसलिए
कि इन स्मृतियों में तत्कालीन समाज और स्थान विशेष की स्मृतियाँ भी शामिल होती हैं ।
सवाल अजीब सा है लेकिन किसी से पूछकर देखिये …आप को अपने बचपन की याद कब से है ? उम्र के एक
साल से ? दो साल से ? या तीन साल से ? क्या
ऐसा भी कोई व्यक्ति हो सकता है जिसे अपने जन्म की घटना याद हो ? जैविक रूप से ऐसा
हो पाना असम्भव है ।
फ्राइड ने कहा था कि मनुष्य के लिये छह साल से पहले
की आयु को याद करना कठिन है इसलिये कि वे
स्मृतियाँ अप्रिय होती हैं लेकिन मनुष्य का निर्माण भी इसी उम्र में होता है । यद्यपि वर्तमान में मनोवैज्ञानिकों ने अनेक
पुरानी अवधारणाओं को झुठला दिया है और नई खोजों में लगे हैं । इस प्रश्न का जवाब
देना आसान नहीं है कि हम घटनाओं को सिलसिलेवार याद क्यों नहीं रख पाते और हमारी तारतम्यता
क्यों गड़बड़ा जाती है , हालाँकि हम ऐसा प्रयास करते हैं ।
अपनी उम्र के चौदहवें-पन्द्रहवें वर्ष में एक दिन यह
विचार मेरे मन में आया कि इससे पहले कि अपने बचपन या होश सम्भालने की घटनाओं की
बारीकियाँ मैं भूल जाऊँ, क्यों न मैं उन्हें लिख कर रख लूँ । उन दिनों मैं भोपाल
के रीजनल कॉलेज ऑफ एजुकेशन में प्रथम वर्ष का छात्र था और जैसा कि पहली बार अपने
घर से बाहर निकलने वाले बच्चों के साथ होता है मुझ पर भी अक्सर नॉस्टेल्ज़िया का दौरा पड़ता रहता था । घर से पहली
बार निकला था और जाने किस किस बात पर होमसिक फील करता था ।
वह बरसात की एक शाम थी । विद्या निकेतन हॉस्टल के कमरा नंबर दस की खिड़की से न्यू
मार्केट की ओर झाँकते हुए, श्यामला हिल्स पर बहते पानी को देखते हुए मुझे बचपन के अपने शहर की बारिश का ख्याल आया । और
यह दृश्य संयोजन कुछ ऐसा हुआ कि मैंने एक नोटबुक में बचपन की कुछ घटनाओं को दर्ज करना
शुरू कर दिया यह सोचकर कि कहीं ऐसा न हो कि बड़ा होकर मैं अपने बचपन की बातों को भूल जाऊँ ।
यद्यपि मेरा
भय निर्मूल था इसलिये कि सामान्यत: बचपन की अधिकांश घटनायें तो मनुष्य बुढ़ापे तक
याद रखता है और वह भी इस तरह जैसे कल ही की बात हो । यहाँ तक कि बचपन की किसी घटना
का ज़िक्र करते हुए वह यह तक बता देता है कि फलाँ दिन उसने कौनसे कपड़े पहने थे और
क्या क्या खाया था जबकि कई बार कुछ देर पहले तक की बात याद नहीं रहती । मनोविज्ञान में इन स्मृतियों को स्थायी स्मृति और
क्षणिक स्मृति कहते हैं । वैसे तो मुझे अधिकांश
घटनाओं को याद रखने की आवश्यकता नहीं थी किन्तु मन में यह बात थी कि आगे चलकर मुझे
लेखक बनना है और यह सब स्मृतियाँ लेखन में मेरे काम आयेंगी । इसी बात ने सब कुछ याद रखने की मेरी ख्वाहिश को जन्म दिया ।
वैसे उन दिनों के वर्तमान को मैंने अपनी डायरी में सुरक्षित करना भी प्रारम्भ कर
दिया था ।
आज उसी नोटबुक का सहारा लेकर अपने बचपन की हार्ड
डिस्क खंगाल रहा हूँ और कोशिश कर रहा हूँ
अपनी पहली स्मृति से लेकर चौदह साल की उम्र तक के दिनों को याद करने की । वैसे
देखा जाए तो मेरे बचपन में ऐसा कुछ भी खास नहीं है जिसका बखान किया जाए , न मुझे अधिक अभावों में जीना पड़ा , न मैंने कभी
भीख माँगी, न बाल मजदूरी की, न कभी भूखे सोना पड़ा, न ही मैंने कभी कोई एडवेंचरस काम किये । एक मध्यवर्गीय
शिक्षक का बेटा आखिर अपने बचपन में अपने संस्कारों की ज़द में रहकर और क्या कर सकता
है । ऐसा भी नहीं कि मुझे ढेर सारे दुख मिले हों और मेरे बचपन की यह कथा किसी के
मन में दारुण दुख उपजा सके । बुद्ध की तरह मैंने अपने बचपन में मृत या बीमार या
दुखी व्यक्ति भी उस तरह नहीं देखे और वैराग्य का कोई ख्याल भी मेरे मन में नहीं
आया । मेरी पारिवारिक स्थिति भी ठीक ठाक ही रही और थोड़े बहुत अभावों के अलावा विशेष
कुछ उल्लेखनीय भी नहीं रहा ।
जब मैं लिखने बैठा तो मुझे लगा कि मैं ‘एक था बचपन ‘ इस शीर्षक के
अंतर्गत अपने बचपन के अलावा और कुछ नहीं लिख पाउंगा लेकिन मेरी कलम चलती गई और
उसमें मेरे बचपन के साथ साथ शामिल होता गया उन तमाम मित्रों का बचपन जिनके जीवन
में आज तक कुछ भी उल्लेखनीय नहीं घटा । वे साधारण ही पैदा हुए और अपने उम्र के
अंतिम पड़ाव तक साधारण ही रह गये । लेकिन जब उनकी साधारणता को मैंने निकट से देखा
तो मुझे कई ऐसी बातें मालूम पड़ीं जिनके बारे में मुझे लगा कि इन्हें दुनिया के
सामने रखना चाहिये । इस बात को भी मैंने महसूस किया कि एक व्यक्ति के असाधारण बनने
में अनेक साधारण व्यक्तियों का योगदान होता है । इसके अलावा और भी कई ऐसी बातें
मसलन एक विशेष काल खंड में एक छोटे शहर का जीवन, भाषावार प्रांत विभाजन में अन्य
भाषा के लोगों की स्थिति । लोगों के धार्मिक कर्मकाण्ड, उनकी जीवन शैली, उनकी छोटी
छोटी खुशियाँ, छोटे छोटे दुख । दरअसल मेरा बचपन सिर्फ मेरा नहीं है वह आप सब का
बचपन है । तो लीजिये मेरे बचपन के बहाने आप
अपने बचपन के समन्दर में गोते लगाइए ।
फिर भी मन में
एक शंका है । आप लोग बड़े बड़े महान लोगों की जीवनी पढ़ते हैं , उनसे प्रेरणा लेते
हैं । मेरे पास तो आपको प्रेरित करने लायक ऐसा कुछ भी नहीं है । एक साधारण इंसान
के जीवन के बारे में जानना आपको अरुचिकर तो नहीं लगेगा ? अगर आपको यह अरुचिकर लगे
तो यहीं पढ़ना बंद कर दीजिये । आगे चलकर आप मुझे इस बात के लिए कोसेंगे तो नहीं कि
भारत के एक सामान्य इंसान के जीवन के बारे में बताकर हमारा समय बर्बाद कर दिया ।
शरद कोकास