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26 जुलाई 2021

13. दो रुपये किराये में शिंगणापुरकर की माड़ी


भंडारा में बाबूजी जब बेला के बेसिक ट्रेनिंग कॉलेज में नौकरी करने के लिए आये तो शहर में नए आने वालों की तरह उनके सामने भी रहने की समस्या थी उन्हें शीघ्र ही रहने का एक ठिकाना मिल गया गान्धी चौक से खामतलाव जाने वाले मार्ग पर शिंगणापुरकर का मकान था जिसमे ऊपर की ओर बना एक बड़ा सा कमरा था बाबूजी बताते थे कि महंगाई के उन दिनों में भी इस कमरे का किराया दो रुपये था |

भंडारा में इस तरह ऊपर की ओर बने कमरे को माड़ी कहते हैं इस माड़ी के एक कोने में स्नानघर और दूसरे कोने में रसोई के लिए जगह थी बीच के हिस्से का उपयोग रात में बेड रूम की तरह और दिन में ड्राइंग रूम की तरह किया जा सकता था इस माड़ी की छत खपरैल की थी और सामने की ओर एक गैलरी थी मकान मालिक शिंगणापुरकर नीचे की ओर  रहते थे मकान में प्रवेश के लिए एक कॉमन गेट था जिससे भीतर प्रवेश करने के बाद बाजू में बनी सीढ़ियों से चढ़कर ऊपर की ओर जाना पड़ता था

 वे माँ बाबूजी की युवावस्था के दिन थे एक कमरा उन दोनों के लिए काफी था वे लोग राजेश जोशी कि कविता ‘ शहद जब पकेगा’ की इन पंक्तियों को जी रहे थे.....

 


             अभी दूर हैं वे दिन

जब ज़रूरत होगी हमें

अलग अलग रजाई की

जब पृथ्वी हो जायेगा तुम्हारा पेट

जब आकाश के कान में फुसफुसायेगी  पृथ्वी

जब वृक्ष से आंख चुरा, तुम चुराओगी मिट्टी

 


संयुक्त परिवार से निकलकर अकेले रहने वाले विवाहित लोगों के लिए जहाँ ढेर सारी कठिनाइयाँ होती हैं वहीं मन मर्जी से जीने की स्वतंत्रता भी होती है शहर की सुविधाओं का वे भरपूर उपभोग कर रहे थे भंडारा में मनोरंजन के और कोई साधन तो थे नहीं बस एक सिनेमाघर था माँ बाबूजी दोनों को सिनेमा देखने का शौक था शहर में लगभग एक सप्ताह में फिल्म बदल ही जाती थी इसलिए फिल्म देखना यह उनका साप्ताहिक कार्यक्रम होता था इस मकान का पहला बिम्ब मेरे मन में इसी सिनेमा से जुड़ा हुआ है

 


मेरा जन्म तो बैतूल में हुआ था लेकिन भंडारा में मेरा प्रथम गृह प्रवेश इसी शिंगणापुरकर की माड़ी में हुआ भूले हुए स्वप्नों की तरह इस एक कमरे वाले घर की मेरी स्मृतियों में माता पिता की युवावस्था के बहुत खूबसूरत दृश्य हैं इनमे सबसे पहला दृश्य तो बखूबी याद है एक दिन माँ बाबूजी सिनेमा का शाम वाला शो देखकर लौट रहे थे उन दिनों मेरी उम्र चोवीस में से बारह घंटे सोने वाली थी अतः मैं सिनेमा देखते हुए ही सो गया था और लौटते वक़्त माँ की गोद में भरपूर नींद का सुख ले रहा था माँ ऊपर कमरे में जाने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ रही थी कि अचानक मेरी आँखें खुलीं मैंने नींद से जागकर क्षण भर के लिए आँखें खोलकर उस ‘माड़ी ‘ को  देखा था, मेरे अवचेतन में उस मकान का प्रथम चित्र वही है ।

 यह मनोविज्ञान का एक नियम है कि जिस समय हम नींद में जाने की तैयारी में होते हैं अथवा नींद से जागते हैं उस समय कुछ देर के लिए हमारा मस्तिष्क ट्रांस में चला जाता है यह एक हिप्नोटिक स्टेट होती है और इस स्थिति में अवचेतन द्वारा किसी भी तरह का दृश्य, आवाज़ , स्पर्श आदि ज्यों का त्यों ग्रहण किये जाने  की सबसे अधिक संभावना होती है इस समय अवचेतन पत्थर की एक स्लेट की तरह होता है, उस समय आँखे जो देखती हैं वह दृश्य या कानों सुनी आवाज़ उस पर हमेशा के लिए अंकित हो जाने की सम्भावना होती है


 बरसाती की तरह एक कमरे वाले मकान शिंगणापुरकर की माड़ी में बीते हुए शैशवावस्था के दिनों के ऐसी ही अनेक क्षणिक अनुभूतियों के बिम्ब  आज भी मेरे अवचेतन में उपस्थित हैं इनमें माँ के दूध की गंध के अलावा उनकी देह गंध है, उनके हाथों का ममता भरा स्पर्श है, तुलसी चौरे पर जलती अगरबत्ती की खुशबू है, उफनते हुए दूध की महक है, पके केले और धान की लाई का स्वाद है , रेडियो से आती किसी पुराने गाने की धुन  है, माँ बाबूजी के गुनगुनाये गीत हैं, रात्रि के किसी पहर में उनकी साँसों का आरोह अवरोह है और भी बहुत कुछ है जो मेरे भूले बिसरे स्वप्नों की तरह मेरी निजी अनुभूतियों के खाते में दर्ज  हैं

शरद कोकास