यह वह दौर था जब कवि और लेखक मानवता, परोपकार,प्रेम, और भाईचारे की बात केवल अपनी रचना में ही नहीं करते थे बल्कि यह सब कुछ उनके जीवन, उनके आदर्शों एवं क्रियाकलाप में भी शामिल था ৷ उनकी रचना के सामाजिक सरोकार उनके जीवन में विद्यमान थे ৷ अपने प्रिय शिष्य जगमोहन के पॉलिटेक्निक कॉलेज नागपुर में एडमिशन हेतु भवानी प्रसाद मिश्र जी ने समस्त कार्यवाही संपन्न की और एक दिन कॉलेज से आया एक पत्र लेकर जगमोहन नागपुर पहुँच गए ৷ नागपुर शहर उनके लिए बिलकुल ही अनजान था ৷ यद्यपि अपनी बुआ, बड़ी बहन विद्यावती और जीजा शिवनाथ जी कोकास से उन्होंने नागपुर के बारे में सुन रखा था ৷ वे लोग नागपुर के एक संपन्न इलाके धंतोली में रहते थे ৷
जगमोहन का एडमिशन करवाने के लिए उनके जीजा शिवनाथ जी उन्हें कॉलेज ले गए । प्रवेश हेतु फॉर्म भरते हुए मराठी भाषी क्लर्क ने उनका नाम पूछा “तुमचं नाव काय आहे ?” उन्होंने अपना नाम बता दिया फिर पूछा गया “वडिला चे नाव काय ?” यानि पिता का नाम क्या है ? उन्होंने कहा “बाबूलाल“ “अच्छा, आडनाव ?” जगमोहन की समझ में नहीं आया कि वे क्या पूछ रहे हैं । यद्यपि एक समय मराठा राज्य के अंतर्गत आने के कारण बैतूल में मराठी भाषी अनेक लोग थे लेकिन हमारे घर के लोगों के भाषाई संस्कार हिन्दी के ही थे ৷
उनके जीजा शिवनाथ जी ने बताया “ यह महोदय सरनेम पूछ रहे हैं ।“ उस समय तक सरनेम लिखने की कोई परंपरा हमारे घर में नहीं थी, बैतूल में शाला में दाखिले के समय जो नाम लिखाया जाता था उसमे जगमोहन वल्द बाबूलाल , रमेश वल्द बृजलाल, मनोहर वल्द कुंदनलाल इतना लिख देना ही पर्याप्त होता था । बहुत हुआ तो जाति भी साथ में लिख दी जाती थी ৷ उनकी मैट्रिक की अंक सूची में भी बस नाम और पिता का नाम ही था ৷
लेकिन महाराष्ट्र में ऐसा नहीं था ৷ यहाँ नाम के साथ केवल पिता का नाम ही नहीं बल्कि सरनेम लगाने की भी परंपरा थी । जगमोहन बाबू कुछ पसोपेश में पड़ गए ৷ क्लर्क ने रास्ता निकाला ৷ उसने साथ आये शिवनाथ जी से पूछा “ तुमचा आडनाव काय ?” यानि आपका सरनेम क्या है ? शिवनाथ जी ने कहा “कोकास ৷ ” बस क्लर्क ने नाम लिख लिया ‘जगमोहन बाबूलाल कोकास’, जो आगे चल कर उनकी डिग्रियों में भी लिखा गया और नौकरी में फिर यह जे. बी. कोकास हो गया ৷ इस तरह हमारे परिवार को एक उपनाम मिल गया । आने वाले समय में जब उनके छोटे भाइयों को सरनेम की आवश्यकता महसूस हुई यही सरनेम कोकास लिखा गया किन्तु फिर किसी लिपिकीय चूक अथवा उच्चारण दोष की वज़ह से ‘स’ के स्थान पर ‘श’ हो गया ৷ अब बैतूल की हमारे परिवार की पीढियां अपना सरनेम ‘कोकाश’ लिख रही हैं वहीं मेरे लकड़दादा बलदू प्रसाद जी के रायबरेली और फतेहपुर में रहने वाले वंशज अपना उपनाम ‘शर्मा’ लिख रहे हैं ৷
धन्तोली में रहने वाले जीजा शिवनाथ जी कोकास, विद्या जीजी और बबूलखेड़ा में रहने वाली बुआ बिरजन बाई और फूफा महादेव प्रसाद के संरक्षण में जगमोहन के तीन वर्ष देखते देखते निकल गए ৷ कस्बे से बड़े शहर में आना एक तरह से सपनों के नये संसार में प्रवेश करना था ৷ पालीटेक्नीक से सिविल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा प्राप्त करने के पश्चात बाबूजी बैतूल आ गए । उस समय यह शिक्षा बहुत महत्वपूर्ण मानी जाती थी । उन्हें तत्काल ही लोक निर्माण विभाग में ओवरसीयर नौकरी भी मिल गई । वैसे भी उस समय देश बस आज़ाद हुआ ही था और पढ़े लिखे लोगों के लिए नौकरी की कोई कमी नहीं थी । उन दिनों ओवरसीयर की यह नौकरी आज के जूनियर इंजिनियर के समकक्ष मानी जाती थी ৷
जगमोहन की नौकरी की शुरुआत के वे दिन उनके जीवन में उत्सव के दिन थे ৷ माँ बाप का सान्निध्य और अपने ही शहर में इतनी बड़ी नौकरी, और क्या चाहिए ৷ लेकिन वे निश्चिन्त होकर बैठ जाने वाले व्यक्ति नहीं थे ৷ उन्होंने अपने ज्ञान और अध्ययन का उपयोग करना शुरू किया ৷ शुरुआत में उन्हें पी डब्ल्यू दी द्वारा बैतूल के खंजनपुर इलाके में बनाये जा रहे एक छोटे से पुल के निर्माण कार्य में वरिष्ठ अभियंता के सहायक के तौर पर नियुक्त किया गया ৷ छह माह के भीतर ही उन्होंने अपनी मेहनत और लगन से सबका विश्वास जीत लिया ৷
मुश्किलें यहीं से प्रारंभ हुई ৷ एक दिन उन्हें ऐसा काम सौंपा गया जिसमे एक ठेकेदार से मिलकर कुछ राशि की व्यवस्था करनी थी ৷ वे अपने पद की गरिमा जानते थे और उस ठेकेदार का वरिष्ठ अधिकारियों के साथ व्यवहार तथा अनुचित लाभ लेने का तरीका भी ৷ उन्हें यह काम कुछ उचित नहीं लगा ৷ इतने दिन महकमे में रहकर वे जान ही गए थे कि धन की यह व्यवस्था किसलिए की जानी है और इसका वितरण किन किन लोगों के बीच होना है ৷ सरकारी महकमों में देश के आज़ाद होते ही भ्रष्टाचार का घुन लग गया था । या कह सकते हैं कि अंग्रेज़ हमें विरासत में लोभ लालच की यह पुडिया दे गए थे ৷ पंचवर्षीय योजनाएँ बन रही थीं, काम की भी कमी नहीं थी लेकिन अंग्रेज़ों के जाते ही जैसे देसी अंग्रेज़ों को अचानक अमीर बनने का चस्का लग गया था ৷
जगमोहन कोकास, भवानी प्रसाद मिश्र जैसे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, संवेदनशील कवि और ईमानदार शिक्षक के शिष्य थे । ईमानदारी उनके भीतर कूट कूट कर भरी थी । भ्रष्टाचार करना तो बहुत दूर की बात है वे भ्रष्टाचार होता हुआ भी नहीं देख सकते थे । मानसिक यंत्रणाओं से परेशान होकर एक दिन वे अपने पिता बाबूलाल जी के समक्ष उपस्थित हुए और उन्हें अपनी परेशानी बताते हुए कहा “ बापू, मुझसे यह नौकरी नहीं होगी ৷ “ बापू ने कहा “ तो फिर क्या करोगे ? “ उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया ৷ उन्हें इतना तो पता था कि वे अब दोबारा फर्नीचर के कारखाने में जाकर आरी बसूला नहीं चलाएंगे ৷
“जैसी तुम्हारी मर्ज़ी ।“ बाबूलाल जी ने उन्हें खामोश देखकर कहा ৷ यह वो ज़माना था जब बच्चे अपने छोटे से छोटे निर्णय में वरिष्ठ जनों की अनुमति अवश्य लेते थे और वरिष्ठ जन भी उनके कामों में अनावश्यक दख़ल नहीं देते थे ৷ अगले ही दिन दफ्तर पहुँचकर उन्होंने घोषणा कर दी कि वे ऐसे भ्रष्ट,घूसखोर लोगों के साथ इस सरकारी विभाग में नौकरी नहीं कर सकते । उनके इस निर्णय को उनकी मूर्खता करार देकर लोगों ने उनकी हँसी उड़ाई और कहा “ भैया, हमरे देस में ऐसा कौनो सरकारी विभाग नहीं है जहाँ लेन देन नहीं चलता ..৷ “ कुछ लोगों ने नेक सलाह भी दी “भैया करो भले ही नहीं, बस जो हो रहा है उसकी ओर से आँख बंद कर लो ৷” वहीं कुछ मित्रों ने सब कुछ जानकर उन्ही से पूछा “अब क्या करोगे ? ”
जगमोहन दृढ़ प्रतिज्ञ थे ৷ उनके बाजुओं में ताकत और मन में हिम्मत थी ৷ वे जानते थे अब सब कुछ नए सिरे से शुरू करना होगा ৷ लेकिन वे निराश नहीं थे ৷ उन्हें पता था ज़िंदगी ने उनके लिए अभी रास्ते बंद नहीं किये हैं, अभी बीजों में अंकुर आना बाक़ी है और उनका पेड़ बनना भी सुनिश्चित है ৷ उन्हें पता था हवाओं का रुख़ कोई अपनी मर्ज़ी से मोड़ नहीं सकता है न उन्हें कोई बहुत देर तक दीवारों के भीतर क़ैद करके रख सकता है ৷ फिर वे तो तूफ़ान थे, यह बात अलग थी कि इस वक़्त उन्हें अपने ही मन में उठ रहे तूफ़ान का सामना करना पड़ रहा था
शरद कोकास
------- ------ तस्वीर बैतूल का पी डब्ल्यू डी ऑफिस , शिवनाथ कोकास और उनका नागपुर स्थित धंतोली का मकान बाबूलाल जी और उनके बेटे जगमोहन