10 जुलाई 2021

11.शहर में आदमियों का बाड़ा


मध्य सदी में मध्य प्रान्त : एक जन इतिहास - कड़ी  क्र.11 
वह साठ का दशक था भंडारा शहर ज़िला मुख्यालय तो पहले से ही था लेकिन महाराष्ट्र निर्माण के बाद भंडारा के तो रंग ही बदल गए तेवर कुछ ऐसे बदले जैसे बूढ़े होते बाप ने घोषित कर दिया हो कि यह मेरा बड़ा बेटा है और अब से घर के बाक़ी लोग सिर्फ़ इसकी बात सुनेंगे भंडारा शहर में कलेक्टोरेट, तहसील कार्यालय, अन्य सरकारी दफ्तर, स्कूल, कॉलेज, कोर्ट, नगर पालिका, पानी की टंकी, ज़िला जेल, आदि पहले से ही थे लेकिन अब उनके अधिकार, दायित्व और प्रसार क्षेत्र आदि में वृद्धि हो गई कार्यालयों और विद्यालयों की संख्या बढ़ी तो धीरे धीरे आसपास के क्षेत्रों, अन्य ज़िलों और दक्षिण मध्यप्रदेश से भी लोग सरकारी नौकरियों में आने लगे शहर में नये आनेवालों की पहली ज़रूरत थी रहने के लिए मकान

भंडारा के गली मोहल्लों में पुश्तैनी रूप से रहने वाले संपन्न लोगों ने अपने अपने मकानों का कुछ हिस्सा किराये से देना शुरू किया कुछ ने अपने खुले खुले आंगनों में बहने वाली बयार की बलि चढ़ाकर उन में कमरे बनवा दिए कुछ ने मकान का उपरी हिस्सा जिसे माड़ी कहते थे जहाँ अमूमन एक कमरा होता था जिसकी छत खपरैल की होती थी किराये से दे दिया कुछ लोगों ने अपने बड़े बड़े मकानों को छोटे छोटे हिस्सों में बाँट कर उन्हें किराये से दे दिया और इस समूह को बाड़े का रूप दे डाला मराठी में बाड़े को वाड़ा कहते हैं सो मानापुरे का वाड़ा, जोशी का वाड़ा, दलाल का वाडा, गुप्ते का वाड़ा जैसे वाड़े मशहूर हो गए इनके प्रवेश द्वार लकड़ी के या टीन के हुआ करते थे स्नानगृह तो सबके अलग अलग थे लेकिन शौचालय अमूमन कॉमन हुआ करते थे या कम होते थे नल भी एक या दो ही होते थे यह वाड़े वर्तमान हाउसिंग सोसायटी का आद्य रूप थे उन दिनों मुंबई में इस तरह के मकान समूह चाल कहलाते थे  


शहर का अर्थतंत्र संभालने वाले सिंधी, पंजाबी, मारवाड़ी , साव आदि  कम्युनिटी के लोग पहले से वहाँ निवासरत थे और भंडारा शहर की मेन रोड पर उनकी पुरानी तरह की दुकानें थीं दुकानों में गद्दियाँ हुआ करती थीं जिन पर बिछी सफ़ेद चादरों पर मसनद से टिककर बैठने वाले दुकान मालिक सेठ कहलाते थे शहर बढ़ा तो उन बाज़ारों में भी रौनक बढ़ने लगी जहाँ कभी मक्खियाँ भगाई जाती थीं निवासियों की संख्या में वृद्धि हुई तो अनाज,किराना,स्टेशनरी जैसा ज़रूरी सामान बेचने वाली कुछ दुकाने गली मोहल्लों के भीतर भी खुलने लगीं कुछ लोगों ने अपने घर के बरामदे में ही लकड़ी के दरवाज़े और पट लगाकर दुकानें खोल लीं या किराये से दे दीं


किसी शहर को बढ़ते हुए देखना ठीक किसी बच्चे को बढ़ते हुए देखने की तरह होता है पहले वह पेट के बल घिसटता है, फिर घुटनों पर रेंगता है और एक दिन अपने पांवों पर खड़ा हो जाता है भंडारा शहर भी कुछ इसी तरह बढ़ रहा था गलियों में बने पीतल के बर्तनों के घरेलू उद्योग के छोटे- मोटे कारखानों, तेल पेरने की घानियों, लुहारों की भठ्ठीयों, बढई की दुकानों और अपने गाय ढोर तथा मवेशियों आदि के साथ भंडारा के लोगों को धीरे धीरे सीमित क्षेत्र में रहने की आदत पड़ने लगी थी अपनी ग्रामीण सांस्कृतिक परम्पराओं, रीति-रिवाज़ों, पारंपरिक मनोरंजन के साधनों के साथ आधुनिक व्यवस्थाओं और सुविधाओं की खिचड़ी पकाते हुए  शहर में जनसंख्या का घनत्व बढ़ता जा रहा था । 


शरद कोकास 

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