पचास के दशक में बाबूजी भंडारा के गवर्नमेंट बेसिक ट्रेनिंग कॉलेज में शिक्षक की नौकरी के लिये आ गए थे । सरकार का शिक्षा का कांसेप्ट बदल रहा था और पारम्परिक गुरु शिष्य परंपरा से आगे अब शिक्षकों को प्रशिक्षण देना अनिवार्य महसूस हो रहा था ৷ इस कॉलेज में प्राइमरी और मिडिल स्कूल के शिक्षकों को अध्यापन की बेसिक ट्रेनिंग दी जाती थी ৷ इनमें अधिकांश छात्र वे होते थे जो पहले से ही कहीं न कहीं शिक्षक की नौकरी कर रहे होते थे ৷ उन्हें अपने स्कूल से डेप्युटेशन पर यहाँ भेजा जाता था ৷ यहाँ महाराष्ट्र के सुदूर क्षेत्रों से छात्र आते थे ৷ आजकल यह पाठ्यक्रम डी एड या डिप्लोमा इन एजुकेशन कहलाता है ৷
भंडारा का यह शासकीय बुनियादी प्रशिक्षण महाविद्यालय भंडारा शहर से नागपुर जाने वाले सड़क मार्ग पर भंडारा से तीन मील अर्थात लगभग पांच किलोमीटर की दूरी पर बेला नामक गाँव के निकट अंग्रेज़ों के पुराने बंगले की तरह बनाई गई एक बड़ी सी इमारत में स्थित था ৷ यह इमारत मुख्य सड़क से कुछ भीतर की ओर घने वृक्षों से आच्छादित एक परिसर में थी ৷ यहाँ बहुत शांत वातावरण था ৷ पेड़ों पर कोयलें कूकती थीं और पंछियों की आवाज़ से परिसर गूंजता रहता था৷ कुछ छात्रों के लिए हॉस्टल में रहने की सुविधा थी ৷ यह छात्रावास भी एक पुराने बंगले में था ৷ कुछ छात्र निकट के बेला नामक गाँव में भी किराये के मकानों में रहते थे ৷ कॉलेज में शिक्षा का माध्यम हिन्दी और मराठी था ৷ यहाँ छात्राएँ नहीं थीं और पुरुष छात्र बहुत संयम के साथ अपना एक वर्षीय पाठ्यक्रम पूर्ण करते थे ৷
बाबूजी प्रतिदिन साइकल से कॉलेज आना जाना करते थे ৷ उनके पास उन दिनों ‘रेले’ कंपनी की एक मजबूत सी साइकल थी ৷ कभी कभी मैं भी उनके साथ सामने हैंडल से लगी एक टोकरी में बैठकर और बाद में साइकल के डंडे पर बैठकर कॉलेज जाया करता था ৷ कभी कभार माँ भी बाबूजी के साथ साइकल के पीछे कैरियर पर बैठकर कॉलेज जाती थी ৷ अक्सर सोशल गैदरिंग या वार्षिक स्नेह सम्मलेन के दिनों में बाबूजी हम लोगों को सांस्कृतिक कार्यक्रम नाटक आदि दिखाने ले जाते थे ৷
मैं शिक्षक का बेटा था इसलिए मुझे भी दो तीन मिनट के लिए मंच पर कुछ कविता गीत आदि प्रस्तुत करने का मौका मिल जाता था ৷ जब मैं प्राइमरी स्कूल में पढ़ता था एक नाटक ‘भूख हड़ताल’ का भी मंचन हम लोगों ने किया था ৷ यह नाटक उन दिनों आनेवाली बच्चों की एक पत्रिका ‘ पराग’ में छपा था ৷ इस नाटक में दो बच्चे अपनी मांगे मनवाने के लिए माँ बाप के सामने भूख हड़ताल करते हैं ৷ दोनों बच्चों की भूमिका में मैं और नानकचंद पंजाबी थे, बहन की भूमिका में हर्षबाला, पिता की भूमिका बिपिन भट्ट ने और माँ की भूमिका ललिता उजवने ने की थी ৷
वार्षिक
कार्यक्रम के अलावा छात्रों के जीवन में ठण्ड के दिनों में यात्रा का भी प्रावधान
था ৷ बाबूजी प्रतिवर्ष
अपने कॉलेज के छात्रों को लेकर शैक्षणिक सहल यानि टूर पर निकलते थे उनके साथ अन्य
अध्यापक भी होते थे जिनमे घटवाई , अम्बोकर, नानोटी और योगेश काले के नाम मुझे याद
है ৷ इस तरह उन्होंने लगभा पूरा भारत घूम लिया था ৷ उनकी अधिकांश
यात्रायें मेरे जन्म से पूर्व की हैं ৷ यात्रा से
लौटने के पश्चात बाबूजी यात्रा में ली गई तस्वीरों को एक मोटे कागज़ पर चिपकाकर
उनमे कैप्शन लिखते थे इस तरह उन्होंने एक सुन्दर सा एल्बम भी बनाया था ৷ उस एल्बम की सभी श्वेत श्याम तस्वीरें अब मेरे पास
हैं ৷
शरद कोकास
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