कवि भवानी प्रसाद मिश्र |
यह वो दिन थे जब ‘जितने हाथ उतने रोजगार’ के सिद्धांत पर चलने वाले समस्त कस्बाई व ग्रामीण पिता अपने बच्चों को अधिक से अधिक मैट्रिक तक पढ़ने की अनुमति देते थे फिर उन्हें काम धंधे में झोंक देते थे ৷ वैसे भी बैतूल में आगे पढ़ने की कोई व्यवस्था नहीं थी ৷ कुछ धनाढ्य व्यवसायी लोगों के बच्चे शहरी रंग ढंग देखने के लिए उच्च शिक्षा के नाम पर किसी बड़े शहर अवश्य जाते थे लेकिन एक दो साल में लौटकर धन उगलने वाले अपने पैतृक व्यवसाय में लग जाते थे ৷
वहीं छोटे शहर के ग़रीब महत्वाकांक्षी बालक अपने पहले और अंतिम स्वप्न में किसी तरह मैट्रिक के परीक्षाफल में सफल होने वालों की सूची में अपना नाम देखना चाहते थे ৷ इससे अधिक बड़े स्वप्न देखने की न उन्हें इज़ाज़त थी न उनकी इच्छा होती थी ৷ मैट्रिक के परीक्षा फल घोषित हो चुके थे और अपने स्वप्न का वांछित फल पा लेने के पश्चात शिक्षा व रोजगार के इस अलिखित संविधान के तहत जगमोहन बाबू घर में चल रही फर्नीचर की दुकान में पिता, चाचाओं व बड़े भाइयों के साथ काम में हाथ बंटाने लगे थे ।
लेकिन उनके मन के किसी कोने में एक अनुत्तरित प्रश्न भी जन्म ले रहा था, गणित विज्ञान में उनकी प्रवीणता क्या केवल फर्नीचर का नाप लेने और खांचे बनाने के काम में नष्ट हो जायेगी ? क्रांतिकारियों के साये में रहकर उन्होंने आज़ादी के स्वप्न देखना सीखा था ৷ उनके बाजुओं में जोश था और ख्यालों में आज़ाद भारत के आज़ाद गगन में ऊँची परवाज़ की ख्वाहिश थी ৷ विदेश जाकर पढ़ने वाले नेहरु, गांधी, अम्बेडकर जैसे नेता उनके आदर्श थे ৷
उन्होंने डरते डरते अपने पिता अर्थात मेरे दादाजी बाबूलाल जी से आगे पढने की इच्छा ज़ाहिर की तो उन्हें दो टूक जवाब मिला “कुछ नहीं ..चुपचाप अपने बड़े भाइयों मनमोहन और मदन मोहन की तरह काम से लग जाओ, दुकान में काम करो या खेती के काम में हाथ बटाओ ।“ पिता की आज्ञा का पालन करते हुए उन्होंने कारखाने में सहायक का काम करना शुरू कर दिया और उच्च शिक्षा के स्वप्न को माचना नदी में तिरोहित कर आये।स्वतंत्रता संग्राम सेनानी, कवि, भवानी प्रसाद मिश्र जो भारत छोड़ो आन्दोलन के दौरान गिरफ़्तार किये जाने के बाद सेन्ट्रल जेल नागपुर भेज दिए गए थे चव्वालीस पैंतालीस में रिहा होकर वापस आ गए थे और फिर से न्यू बैतूल हाईस्कूल में हेडमास्टरी करने लगे थे ৷ लेकिन उस समय तक तय हो चुका था कि एक आध साल में आज़ादी ही मिल जायेगी इसलिए उनकी बाहरी व्यस्तताएं बढ़ गई थीं ৷ उनका घर पड़ोस में ही था ৷ वे जब भी बैतूल में होते, अपने घर से निकलकर हमारे घर और कारखाने के सामने से होते ही हुए शहर की ओर जाते थे ৷
एक दिन घर के सामने से गुजरते हुए जब उन्होंने अपने प्रिय छात्र जगमोहन को लकड़ी की दुकान में काम करते हुए देखा तो उन्हें आश्चर्य हुआ कि उनके स्कूल का मेधावी छात्र जगमोहन लकड़ी की दुकान में पसीना बहाते हुए रंदा खिंचवा रहा है । वे उनका हाथ पकड़कर उन्हें बाबूलाल जी के पास ले गए और उनसे कहा “ बाबूलाल जी, आपके इस बेटे का जन्म आरी बसूला चलाने या रंदा खींचने के लिए नहीं हुआ है, यह हमारा क्रांतिकारी वीर पढ़ने लिखने में भी होशियार है, इसका गणित भी बहुत अच्छा है । इसे आगे क्यों नहीं पढ़ा रहे हैं आप ?“
बाबूलाल जी धर्म संकट में आ गए ৷ उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि ख़ुद हेडमास्टर भवानी प्रसाद जी उनके बेटे की इस तरह सिफारिश करेंगे ৷ लेकिन वे अपनी सीमायें जानते थे ৷ उन्होंने बात टालनी चाही “ पढ़ लिख कर भी क्या करेगा पंडित जी, काम तो इसे खेतीबाड़ी का या फर्नीचर बनाने का ही करना है ।“ इससे पहले कि भवानी प्रसाद जी उनकी बात का जवाब देते उन्होंने दृढ़ होकर कहा “ पंडित जी, आपकी बात सही है लेकिन असल बात तो यह है कि हमारी आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं है कि इसे किसी और शहर में कॉलेज की पढ़ाई के लिए भेजें ।“
भवानी प्रसाद जी इस घर में रहते थे बैतूल में |
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