22 जून 2021

6 अगर उन्हें गोली लग जाती तो

    

जगमोहन कोकास 


मेरे परदादा विश्वेश्वर प्रसाद जब बैतूल आये तो उन्होंने तालाब के पास मुसलमानी मोहल्ले में एक मकान किराये से ले लिया फिर कुछ वर्षों बाद इतवारी बाज़ार में अपना मकान बना लिया मकान से लगा हुआ लकड़ी का कारखाना था जैसे कि उन दिनों भी पढ़े लिखे माँ बाप अपने बच्चों को स्कूल भेजते थे बाबूलाल जी ने भी अपनी संतानों को स्कूल भेजना शुरू किया

 उन दिनों शहर में एक ही हाई स्कूल था जिसे मिश्रा हाई स्कूल कहते थे बाद में उसका नाम न्यू बैतूल हाई स्कूल हो गया छात्र जगमोहन पढ़ने में तो मेधावी थे ही लेकिन देशभक्ति की बातों में उनका मन अधिक लगता था “हवाओं में रहेंगी मेरे ख्यालों की बिजलियाँ” कहते हुए फांसी के फंदे पर लटक जाने वाले भगतसिंह को शहीद हुए एक दशक भी नहीं हुआ था और देश भर के बच्चे  उन बिजलियों की रौशनी में आज़ादी की ओर जाने वाला मार्ग तलाश रहे थे


यह संयोग की बात है कि सन चालीस के करीब हिन्दी के सुप्रसिद्ध कवि भवानी प्रसाद मिश्र, मिश्रा हाईस्कूल में हेडमास्टर बन कर आ गये भवानी दादा उस समय युवा थे और गाँधीजी से बहुत प्रेरित थे उन्ही की प्रेरणा से स्कूल की गतिविधियों के साथ साथ वे स्वतंत्रता आन्दोलन में भी रूचि लेने लगे उन्होंने इतवारी बाज़ार बैतूल में एक मकान किराये से ले लिया और बैतूल के युवाओं और बच्चों को संगठित करने का काम शुरू कर दिया उनका यह मकान मेरे पैतृक मकान के बहुत ही करीब था


भवानी प्रसाद मिश्र जी ने अपने शिक्षक साथियों मदनलाल चौबे,रामस्वरूप बाजपेयी,शम्भू प्रधान,लघाटे मास्टर आदि को लेकर एक टीम तैयार की और विभिन्न गुप्त योजनाओं को अंजाम देने के काम में लग गए इन कामों में प्रमुख काम थे अंग्रेज़ सरकार के ख़िलाफ़ प्रदर्शन करना, जुलुस निकालना, जहाँ अन्याय दिखे उस अन्याय का विरोध करना और अंग्रेज अधिकारीयों के ख़िलाफ़ नारे लगाना एक टीम उन्होंने अपने स्कूल के छात्रों को लेकर भी बनाई थी जिसमे शामिल थे राममूर्ति चौबे, कोमल सिंह ,जगमोहन कोकास, रमेश कुमार बाजपेयी और उनके स्कूल के कई छात्र मेरे पिता जगमोहन तो उस समय सातवीं में थे और रमेश बाजपेयी यानि रम्मू चाचा पांचवीं में पढ़ते थे
जगमोहन व उनके मित्र 

यद्यपि यह बच्चे बहुत छोटे थे लेकिन उनमे जज़्बा ग़ज़ब  का था आन्दोलन शब्द के विषय में उन्हें भले पता न हो लेकिन गुलामी का अहसास अवश्य था वे अपने पिताओं,चाचाओं और घर के कामकाजी लोगों को अंग्रेज़ों के हंटर से पिटते हुए देखते थे तो उनका बाल मन उद्वेलित हो जाता था लगता था यह देशप्रेम का जज़्बा अनुभव से उपजा था ज़ाहिर हैं शोषण के ख़िलाफ़ लड़ने की समझ पैदा करने के लिए उम्र का कोई बंधन नहीं होता

 यह बच्चे भवानी दादा और उनकी टीम के लगों के लिए प्रमुख रूप से सन्देश लाने ले जाने, सूचनाएँ और आन्दोलन सामग्री पहुँचाने का काम करते थे | बच्चों पर अंग्रेज़ों की नज़र ज़रा कम रहती थी इसलिए सारे काम आसानी से हो जाते थे 


बंगलुरु का जुलुस 
 फिर आई तारीख़ नौ अगस्त उन्नीस सौ बयालीस उस दिन गाँधीजी के आव्हान पर अंग्रेज़ों के खिलाफ़ प्रदर्शन करने और जुलूस निकालने के अलावा कचहरी की बिल्डिंग पर तिरंगा फहराने की योजना बन चुकी थी उस दिन सुबह से ही जुलुसू की तैयारी होने लगी थी जुलुस के लिए इकठ्ठा

 होने की जगह ,प्रस्थान के समय की सूचनाएँ एक दिन पूर्व ही पहुँचाई जा चुकी थीं भवानी दादा के नेतृत्व में स्कूल के अनेक शिक्षकगण और शहर के देशप्रेमी लोग जुलुस में शामिल हो गए छोटे बच्चों को जुलूस में कोई अनहोनी होने आशंका की वज़ह से आने की मनाही थी लेकिन रक्त में मचलती भावनाओं को कौन रोक सकता है वैसे भी बच्चों को जुलुस में जो आनंद आता है वह सब जानते ही हैं

 जुलूस की शुरुआत न्यू बैतूल हाईस्कूल से हुई और कोठी बाज़ार मेन रोड, गुजरी से होता हुआ वह कचहरी की ओर बढ़ने लगा जैसा कि हम आज़ाद भारत में भी देखते आये हैं उस समय भी पुलिसवाले डंडे लिए जुलूस के साथ चल रहे थे बिना आदेश के उन्हें कुछ भी करने की मनाही थी जुलुस आगे बढ़ने लगा बंकिमचंद्र की कविता ‘वन्दे मातरम’ और बिस्मिल अज़ीमाबादी का गीत ‘सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है’ फिज़ाओं में गूंजने लगे

 यहाँ तक तो सब ठीक था लेकिन जुलूस जैसे ही डिस्ट्रिक्ट जेल के पास पहुँचा गीत नारों में बदल गए .. अंग्रेज़ों भारत छोड़ो , अंग्रेज़ी हुकूमत मुर्दाबाद के तीखे स्वर जैसे ही सियासतदां लोगों के कानो में पड़े एक फ़रमान जारी हुआ .. लाठी चार्ज .. जुलूस में शामिल मदनलाल चौबे,रामस्वरूप बाजपेयी,शम्भू प्रधान ,लघाटे मास्साब ने देखा .. अरे यह तो अपने जानकी प्रसाद दुबे हैं पोलिस दरोगा जानकी प्रसाद के चेहरे पर कोई दुविधा नहीं थी वे उस समय अंग्रेज़ सरकार के मुलाजिम की भूमिका में थे

 फूटे हुए माथों से बहता हुआ खून मुँह में भर आता था लेकिन “अंग्रेज़ों भारत छोड़ो“  की आवाज़ में वही जोश था, वही ताकत थी , वही प्रतिरोध जो बरसों ज़ुल्म सहने के बाद पैदा होता है लाठियाँ बच्चों पर भी पड़ रही थीं लेकिन उनका सर बचाया जा रहा था एक लाठी जांघ पर दस वर्ष के बालक रमेश बाजपेयी पर भी पड़ी बाकी बच्चों ने उन्हें कवर किया बस कुछ ही दूरी पर था वह खम्भा जिस पर यूनियन जैक लहरा रहा था क्रांतिकारियों ने अपने अपने पास रखे तिरंगों को हवा में लहराना शुरू किया उनका अगला लक्ष्य उस खम्भे पर झंडा फहराना था

अचानक एक बालक भगदड़ के बीच से निकला, उसके हाथ में एक तिरंगा था जिसमें एक लकड़ी लगी हुई थी लोगों ने देखा वह बालक तेज़ी से उस खम्भे की ओर बढ़ा जा रहा है “अरे जग्गू .. जगमोहन ..” जुलुस में शामिल वरिष्ठ लोगों ने आवाज़ दी लेकिन ग्यारह वर्षीय वह बालक रुका नहीं वह फुर्ती से खंभे की ओर बढ़ा, यूनियन जैक निकाल कर ज़मीन पर फेंक दिया और वहाँ बंधी रस्सी में लकड़ी खोंसकर तिरंगा फ़हरा दिया

यह एक ऐसी हरकत थी जिस पर हर किसी का ध्यान था लाठीचार्ज करते हुए सिपाहियों के पास बंदूकें नहीं थी लेकिन जाने कहाँ से एक अंग्रेज़ पुलिस ऑफिसर आया और उसने झंडा फहराकर खम्भे पर नीचे फिसलते हुए जगमोहन पर गोली चला दी लेकिन ज़ाहिर है कि निशाना चूक गया जगमोहन को यह सब देखने की फुर्सत कहाँ थी वह तो क्षणों में भीड़ में गायब हो गया था


बैतूल का टाउन हॉल 

बाबूजी ने कभी मुझे विस्तार से इस घटना के बारे में नहीं बताया हमें बस इतना पता था कि वे अपने बचपन में कचहरी में झंडा फहराकर आये थे मैंने उनसे कहा भी कि “आप सरकार से यह सब क्यों नहीं कहते ?” उन्होंने कहा “ मैंने कोई बड़ा काम नहीं किया है हज़ारों लोगों ने देश के लिए अपनी जान दी है ,मैंने तो बस झंडा फहराया था ” मैंने उनसे कहा .. “फिर भी .. “ बाबूजी समझ गए “ मुझे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी का तमगा लटकाए घुमने का कोई शौक नहीं है

बाबूजी के निधन के बरसों बाद रम्मू चाचा यानि डॉ. रमेश कुमार बाजपेयी ने विस्तार से यह घटना बताई अठ्ठासी वर्षीय बाजपेयी जी रीजनल कॉलेज भोपाल से सेवानिवृत प्रोफ़ेसर हैं और भोपाल में रहते हैं बाबूजी को वे हमेशा अपना बड़ा भाई ही मानते रहे रम्मू चाचा से पूरी घटना विस्तार से सुनने के बाद मैं चुप हो गया फिर मैंने उनसे पूछा “ मान लीजिये बाबूजी को उस दिन गोली लग जाती तो ?”


डॉ रमेश बाजपेयी 

    रम्मू चाचा ने कहा ..” तो क्या, देश के लिए शहीद हो जाते ” “ बाद में बाबूजी को गिरफ़्तार नहीं किया गया ? “ मेरा अगला सवाल था “ अरे भवानी प्रसाद मिश्र जी और उनके साथियों के रहते किसकी हिम्मत थी जग्गू भैया को कोई हाथ भी लगाता उन्हें तुरंत अंडरग्राउंड कर दिया गया ” हाँ भवानी भाई , उनके शिक्षक साथी रामस्वरूप मास्साब और शम्भू प्रधान ज़रूर गिरफ़्तार कर लिए गए और उन्हें नागपुर जेल भेज दिया गया जहाँ वे उन्नीस सौ चौवालीस तक रहे

 कभी कभी कैसा होता है ना .. बाबूजी से उनके रहते हुए मैंने एक दो बार इस घटना का विस्तार जानना चाहा था लेकिन मुझे उन्होंने कभी कुछ नहीं बताया और मुझे क्या किसी को भी कुछ नहीं बताया शायद उन्होंने कभी इस घटना को इतना महत्त्व ही नहीं दिया क्या पता वे क्या सोचते थे ।“ मैंने रम्मू चाचा से कहा 

अरे, तुम्हारे पिता जैसे ईमानदार, कर्मठ, प्रसिद्धी के मोह से कोसों दूर लोग कहाँ मिलते हैं अगर प्रसिद्ध होने या नाम कमाने की इतनी ही ख्वाहिश होती तो आज सरकार से ताम्रपत्र लेकर स्वंत्रता संग्राम सेनानी की पेंशन                                          नहीं पा रहे होते ? चाचाजी ने कहा । 

    “लेकिन बेटा, तुम इस बात को लोगों तक ज़रूर पहुँचाओ, भंडारा के लोगों तक और हमारे बैतूल के लोगों तक भी यह बात जानी चाहिए कि उनके शहर के बेटे जगमोहन ने स्वतंत्रता आन्दोलन में क्या योगदान किया है मुझे भी आज तक बचपन के उस जुलूस में मार खाई उस एक लाठी का दर्द याद है  चाचाजी ने गर्व से अपना भाल उन्नत करते हुए कहा

शरद कोकास 

2 टिप्‍पणियां:

  1. आपके दादाजी को नमन। देश की आज़ादी के ऐसे बहुत से वीर सिपाही थे, जो स्वतंत्रता सेनानी होने के बावजूद उसका फ़ायदा नहीं लिए। आपके दादाजी भी उनमें से एक हैं। अब उनके सम्मान के लिए आपको आगे आना चाहिए।

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