यह सोचना भी बहुत मज़ेदार लगता है कि एक समय ऐसा भी था
जब ज़मीन के टुकड़े भी यात्राएँ करते थे ৷ लेकिन यह सच है कि
करोड़ों वर्ष पहले इस पृथ्वी के भूभाग अपनी जगह से सरक कर दूसरी जगह चले जाते थे ৷ फिर एक दिन वे यात्राएँ करते करते ऊब गए और स्वयं पर स्थित समुद्रों ,पहाड़ों,
नदियों, झीलों और चट्टानों सहित एक स्थाई पते पर रहने लगे ৷ वे तो वहीं रहे लेकिन उन पर शासन करने वाली सत्ताओं का पता
बदलता गया ৷ इमारतें वही रहीं, उन पर
लगे ध्वज बदलते गए ৷ नियम बदलते गए, कानून
बदलते गए, नगरों के नाम बदलते गए, महलों में लगे राजाओं के लम्बे चौड़े तैलचित्र
बदलते गए ৷ बदलने का यह सिलसिला पूरी
दुनिया में चार-पांच साल के अंतराल पर आज भी बदस्तूर जारी है
जंगलों,पहाड़ों,
नदियों और सागरों ने उस वक़्त तो चैन की साँस ले ली थी कि उन पर कोई अपना हक़ नहीं
जता रहा है लेकिन आगे चलकर जैसे जैसे वे विभिन्न राज्यों की सीमा के अंतर्गत आते
गए वे भी मनुष्यों की तरह उनके अधीन होते गए ৷ शासकों ने उन्हें अपने अपने तरीके से नाम दिए और उनसे होने
वाली कमाई पर अपना हक़ जताया ৷अब तो जंगलों और
पहाड़ों के गुलाम होने का यह चलन अपने चरम पर है ৷
जंगलों के बारे में जब भी सोचता हूँ तो मुझे अपने
जन्मस्थल बैतूल के आसपास के जंगल याद आते हैं ৷ “सतपुड़ा के घने जंगल ऊँघते अनमने जंगल ..” कवि भवानी प्रसाद
मिश्र की यह पंक्तियाँ पढ़ते ही मध्यभारत में स्थित ग्रेनाईट और बेसाल्ट पत्थरों से
निर्मित सतपुड़ा पर्वत श्रंखला और वहाँ के घने जंगल उन पंक्तियों में साकार हो जाते
हैं ৷ तत्कालीन मध्यप्रांत के दक्षिणी भाग के आदिवासी बहुल ज़िले बैतूल के मुलताई क्षेत्र
से निकली ताप्ती नदी और अमरकंटक से निकली नर्मदा की धाराएँ उनमे मचलने लगती हैं ৷ इन नदियों की उपत्यकाओं में बसे मूल निवासियों के
सुख-दुःख, उनकी बोली, उनकी भाखा कविता में मुखर होने लगती है ৷
अतीत के पन्ने पलटते हुए हम कुछ पीछे चलते हैं ৷ यह सन चौदह सौ के आसपास की बात है ৷ जंगली हवाओं में घुली आदिम गंध, सागौन वनों की नमी,
और ठण्ड से ठिठुरते पात गात बैतूल को उसकी आदिम पहचान प्रदान कर रहे थे ৷ खेड़ला, देवगढ़,
गढ़ा मंडला, चांदा सिरपुर , जैसे गोंड राज्यों का यह क्षेत्र अपने वर्तमान रूप में
एक खुशहाल प्रदेश था ৷ यहाँ के गोंड राजा अपने जंगलों के सान्निध्य में, अपनी
नदियों के साथ, अपनी प्रजा के संगी साथी बनकर खुशनुमा जीवन व्यतीत कर रहे थे
৷ गोंडवाना साम्राज्य के संस्थापक शासक नरसिंह राय अपनी
प्रजा के चहेते राजा थे और वर्तमान बैतूल शहर से छह किलोमीटर दूर स्थित खेड़ला के
किले से खेड़ला राज्य का संचालन करते थे৷
लेकिन
समय को करवट लिए बिना चैन कहाँ ৷ सन चौदह सौ
अठारह में मालवा के सुलतान होशंगशाह अपना रथ दौड़ाते हुए यहाँ तक आ गये और उन्होंने
गोंड राजाओं के तमाम क्षेत्र में अपने राज्य की पताका लहरा दी ৷ फिर बस कुछ ही वर्षों बाद , चौदह सौ सड़सठ में बहमनी
शासक फ़िरोज शाह यहाँ पहुँच गए ৷ कालांतर में यह
प्रदेश पूर्णतः दक्षिण के बहमनी शासकों के अधीन आ गया और अंततः राघोजी भोंसले के
जयघोष के साथ यहाँ मराठों का साम्राज्य
स्थापित हो गया ৷ संस्कृति के
गौरवशाली अध्यायों में भारतीय कहलाने वाले यह अंतिम राजा थे ৷
उस
समय तक ईस्ट इण्डिया कंपनी अपना रबर का तम्बू धीरे धीरे पूरे महादेश में फैलाने
लगी थी৷ सन अठारह सौ अठारह
आते आते ब्रिटिश साम्राज्यवादी नीति के तहत यह प्रदेश ईस्ट इण्डिया कंपनी के अधीन
आ गया ৷ यहाँ की ठंडी
जलवायु के कारण गर्मी से परेशान होने वाले अंग्रेज़ों को यह प्रदेश बहुत पसंद आया ৷ लेकिन व्यापारी अंग्रेज़ों को इस जगह से कोई विशेष लाभ
नहीं था ৷ अर्थात इस जगह से उन्हें कोई आमदनी नहीं थी क्योंकि यह बे
तूल था ৷ बे यानि बिना
और तूल यानि कपास , अर्थात यहाँ कपास नहीं होता था ৷ फिर बचे हुए गोंड राजाओं के वंशज भी खेड़ला सरकार के
रूप में अपना अस्तित्व बनाए हुए थे ৷ गोंडों को अंग्रेज़ी नहीं आती थी और अंग्रेज़ों को
गोंडी से कुछ लेना देना नहीं था ৷ इसलिए यह
प्रदेश उपेक्षित ही रह गया ৷
बीसवीं शताब्दी
आते आते यह सम्पूर्ण प्रदेश सेन्ट्रल प्रोविंस के अंतर्गत आ गया और इसे ‘सी पी एंड
बेरार’ या ‘मध्य प्रांत और बरार’ का नाम दिया गया
इसे नर्मदा सम्भाग के अंतर्गत ही माना जाता था ৷ मनुष्य यहाँ
कम आये थे इसलिए पेड़ों को जीने का अवसर मिल गया और धीरे धीरे पूरा प्रदेश वनों से
आच्छादित हो गया ৷ पहले बैतूल को ‘बदनूर’ कहा जाता था लेकिन बाद में यहाँ के वर्तमान
मुख्यालय से पांच किलोमीटर दूर स्थित ‘बैतूल बाज़ार’ के नाम पर इसका नाम बैतूल हो
गया ৷ बैतूल बाज़ार तत्कालीन गोंड राजाओं का मूल शहर था ৷
सन उन्नीस सौ के आसपास मेरे परदादा विश्वेश्वर प्रसाद
जी लाऊ पाठक का पुरवा जिला रायबरेली से काम धंधे की तलाश में बैतूल आ गए थे৷ यहाँ उन्होंने लकड़ी के व्यवसाय के लिए जंगलों का
ठेका लेना शुरू किया ৷ उसके बाद अपना फर्नीचर का
काम भी प्रारम्भ किया ৷ उनकी दस संतानें हुईं,
पांच बेटियाँ और पांच बेटे ৷ बेटियों के शादी
ब्याह हो गए और बेटे जंगल के ठेके व फर्नीचर के काम में लग गए ৷ उनमे एक दो कुछ समय के लिए नौकरी धंधे के सिलसिले
में बाहर भी चले गए फिर लौट आये ৷ इसी बैतूल में विश्वेश्वर प्रसाद जी के बड़े बेटे बाबूलाल जी के घर
में तीसरे दशक के अंत में एक बेटी व दो बेटों के बाद चौथी संतान के रूप में मेरे
पिता श्री जगमोहन कोकास का जन्म हुआ था ।
शरद कोकास
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