11 अक्तूबर 2021

18. दीवार में एक आला रहता था

बचपन के उन दिनों में अक्सर मेरे पाँव मुझसे अनुमति लिए बगैर शहर से बाहर किसी खँडहर की ओर मुड़ जाते थे   मैं अपने अकेलेपन में अपने भीतर भटकता हुआ पाँवों से जाने कहाँ कहाँ भटकता था हलधरपुरी मोहल्ला जहाँ खत्म होता था उस अंतिम छोर पर मराठा काल में बनी पत्थर की कुछ छतरियाँ थीं संभवतः वे किसी छोटे मोटे मराठा सरदार या योद्धा के समाधि स्मारक रहे होंगे उस समय भी राजा महाराजाओं के स्मारक तो शहर के भीतर बनाये जाते थे लेकिन अन्य सरदारों को मृत्यु के बाद दूर दराज ही जगह मिलती थी आम जनता को यह सुविधा प्राप्त नहीं थी उनका  जीना क्या और मरना क्या, उनकी स्मृति को तो कभी  किताबों में भी जगह नहीं मिली

उन छतरियों का वास्तुशिल्प देखने लायक था स्तंभों में पत्थर एक के ऊपर एक बहुत कुशलता के साथ जोड़े गए थे मैं उन पत्थरों को बहुत ध्यान से देखता था और उनमे उन्हें  जोड़ने वाले कारीगर की उँगलियों का स्पर्श महसूस करता था उसके आसपास कुछ पुराने ढहे हुए मकान भी थे बरसात के दिनों में पुराने मकानों की ढही हुई मिट्टी की दीवारों पर उगी हुई काई से अजीब सी गंध आती वह गंध मुझे उस दीवार के इतिहास से आती हुई मालूम होती थी


प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों को देखते हुए मेरे मन में विचार आता था कि जब सीमेंट की खोज नहीं हुई होगी तब इतनी मज़बूत इमारतें कैसे बनती होंगी ? बचपन में एक बार बाबूजी के साथ इलेक्शन ड्यूटी में भंडारा के पास के एक ऐतिहासिक कस्बे ‘पवनी’ जाना हुआ था वहाँ पांच छह सौ साल पहले का गोंड कालीन एक पुराना किला है  जो देखने में अधूरा सा लगता है उसके बहुत सारे हिस्से अब शेष नहीं हैं मैंने देखा उसके भग्नावशेष आसपास ही बिखरे हुए थे एक जगह पत्थरों को जोड़ने वाला गारा अपने जमे हुए शिल्प में उपस्थित था  ऐसा लगता था जैसे उस समय किले के किसी भाग का निर्माण कार्य चल रहा होगा, उसी समय दुश्मन का आक्रमण हुआ होगा या कोई और व्यवधान आ गया होगा और उन्हें सब कुछ वैसे ही छोड़कर जाना पड़ा होगा

अपनी मजबूती में वह गारा पत्थर की तरह ही था वस्तुतः उन दिनों ईटों और पत्थरों  को जोड़ने के लिए ऐसे ही विभिन्न प्रकार के गारे बनाये जाते थे जिनमे चूना पत्थर, लाल मिट्टी, चाक मिटटी,  गोंद , बेल, का गूदा जैसी तमाम चीज़ें हुआ करती थीं फिर सन अठारह सौ चोवीस में इंग्लैंड में चूना पत्थर और मिट्टी से सीमेंट जैसी एक वस्तु का आविष्कार हुआ और सन अठारह सौ पचास में रेत,चूना पत्थर, चाक मिटटी जैसी वस्तुओं में उपस्थित कैल्शियम ऑक्साइड, अल्युमिनियम ऑक्साइड , सिलिकॉन ऑक्साइड जैसे तत्वों के माध्यम से सीमेंट बनने लगा आज के आधुनिक कंक्रीट के जंगल इसी सीमेंट की बदौलत पनप रहे हैं एक सच यह भी है कि आज चीन और भारत विश्व के सबसे बड़े सीमेंट निर्माता हैं

शहरों की गगनचुम्बी सीमेंट कंक्रीट से बनी इमारतों को देखकर यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि एक समय ऐसा था जब दीवारें केवल मिटटी की होती थीं या ईटों की जुड़ाई मिट्टी के गारे से की जाती थी उन्हें इतना चौड़ा बनाया जाता था कि वे आसानी से ढह ना सकें भंडारा के हमारे देशबंधु वार्ड के इस मकान में विशेष बात यह थी कि इस मकान की भीतरी बाहरी सभी दीवारें मिट्टी की थीं हम शर्म के कारण किसी से कहते नहीं थे कि हम मिट्टी के घर में रहते हैं लेकिन अवसर आने पर यह कहने से नहीं चूकते थे कि हमारे घर की दीवारें दो फीट मोटी हैं और इस वज़ह से गर्मी के दिनों में भी घर के भीतर ठंडक रहा करती है  । हम भारतीयों  की यही विशेषता है कि हम कभी कभी अपने अभावों को भी अपना सुख मान लेते हैं और अवसर आया तो औरों से बढ़ा चढ़ा कर अपने सुखों का बखान भी करते हैं


उस मकान की मिटटी की दीवारों में जगह जगह ताख या आले बने हुए थे जिनका उपयोग छोटा मोटा सामान, दीपक आदि रखने के लिए होता था  । एक बार विपिन चाचा भंडारा आये उन्होंने मजाक में पूछा    “क्या तुम आले में रुमाल बिछाकर सो सकते हो ?” मैं बहुत देर तक सर खुजाता रहा और कहा “मैं क्या कोई नहीं सो सकता .. वो तो सिर्फ तुलसी बाबा के हनुमान जी कर सकते हैं .. सूक्ष्म रूप धरी सियही दिखावा “ विपिन चाचा हंसने लगे “ अरे भाई,  सूक्ष्म रूप धर कर आले में सोने को कौन कह रहा है .. आले में रुमाल बिछाकर आप फर्श पर भी तो सो सकते हैं

घर के सामने वाले आंगन से एक गली इन कमरों के समानांतर पीछे के आंगन तक जाती थी जिसकी बाहरी दीवारें बरसात के दिनों में पसीजती रहती थीं वहीं बगल के मकान वाले सहसराम के घर के पीछे की दीवार भी इसी गली में खुलती थी जो हर बरसात में थोड़ी थोड़ी ढह जाती थी इस दीवार पर बांस की एक सीढ़ी लटकी रहती थी कच्चे मकानों की मिट्टी की इन दीवारों की नियति यही थी कि इन्हें बारिश से बचाना होता था आज भी गाँवों में ऐसे दृश्य दिखाई देते हैं जहाँ घर के भीतर की दीवारें तो छप्पर होने के कारण बची रहती हैं लेकिन चहारदीवारी अक्सर बारिश में ढह जाती है

एक दिन मुस्लिम लायब्रेरी के एक मुशायरे में संचालक ने शायर सिब्त अली सबा के एक शेर पढ़ा जिसका ज़िक्र मेरे मित्र नासिर अहमद सिकंदर अक्सर करते हैं .....

 दीवार क्या गिरी मिरे ख़स्ता मकान की

लोगों मेरे सेहन में रस्ते बना लिए

आज भी सिर्फ ढही हुई दीवारें ही नहीं बल्कि ढहे हुए इरादों वाले ढहे हुए लोगों और उनकी विवशता का फ़ायदा उठाते समर्थ लोगों को देखकर मुझे यही शेर याद आता है वैसे भी मिटटी की दीवारें तो ग़रीब मज़लूमों के घर की हुआ करती हैं , पत्थरों के मजबूत आलीशान मकान तो केवल राजाओं, अमीरों, धन्ना सेठों, भगवानों और ख़ुदाओं को ही नसीब हैं


हमारा यह मिट्टी का घरौंदा सिर्फ दीवारों में ही मिट्टी का नहीं था बल्कि बीच के दोनों कमरों की छत जो उपरी मंजिल का फर्श भी थी बांस और मिटटी की ही बनी थी और लकड़ी की दो मज़बूत मयालों पर टिकी हुई थी मकान मालकिन नानी जब उस फर्श पर चलतीं तो उनके चलने से नीचे बीच वाले दोनों कमरों में धम्म धम्म की आवाज़ आती थी

उन दिनों मुझे भूत-प्रेत की कहानियाँ पढ़ने का बहुत शौक था वैसे भी गाँवों में सर्दियों की रातों में गुदड़ी में दुबके हुए बच्चों को उनकी माँ, दादियाँ और नानियाँ तो परी और राजकुमार के किस्से सुनाती थीं लेकिन घर में कुछ बड़े भाई होते थे जो बदमाशी किया करते थे और छोटे भाई बहनों को भूत- प्रेत की झूठी कहानियाँ  सुनकर डराया करते थे बैतूल में मेरे बड़े भाइयों और उनके दोस्तों ने इसी भूमिका का निर्वाह किया था

नानी जब गाँव चली जाती थीं और ऊपर की मंज़िल पर कोई नहीं रहता था वह आवाज़ आनी बंद हो जाती थी एक दिन उनकी अनुपस्थिति में भी धम्म से आवाज़ आई मैंने पहले दिन तो वह आवाज़ सुन कर भी  अनसुनी कर दी दूसरे दिन फिर वैसी ही आवाज़ आई मैं बुरी तरह डर गया था मुझे लगा नानी के जाने के बाद वहाँ भूत रहने आ गए हैं मैं कान लगाकर भूतों के चलने की आवाज़ सुनने की कोशिश करता लेकिन भूत होते तब ना आवाज़ आती डर की इंतिहा हो जाने के बाद एक दिन मैंने  माँ से कहा “ माँ, लगता है नानी ने भूत पाले हैं ” माँ ज़ोरों से हँसी.. “ अरे वह धप्प से बिल्ली के कूदने की आवाज़ हो सकती है ” फिर वे मुझे पीछे वाले आंगन में लेकर गई हमने देखा ऊपर की माड़ी की खुली खिड़की से एक काली बिल्ली निकलकर बाहर आ रही थी शायद चूहों की तलाश में वह वहाँ आ गई थी


माँ ने कहा “देखो, कभी किसी चीज़ से डरना नहीं अगर डर लगे तो उसके करीब जाकर देखना, जैसे ही करीब जाओगे उसकी असलियत समझ में आ जाएगी और डर ख़तम हो जाएगा जो दूर से दिखाई देता है वह हमेशा सच नहीं होता उसके बाद भूत-प्रेत, बुरी आत्मा, चुड़ैल, दानव, राक्षस, लाश, मरघट , अँधेरा और हॉरर फिल्मों जैसी चीज़ों से मेरा डर ख़तम हो गया जिस चीज़ से मुझे डर लगता मैं उसके करीब जाकर उसकी वास्तविकता को जानने का प्रयास करता और आश्चर्य कि सच्चाई जानकर मेरा डर  ख़त्म हो जाता

पिछले दिनों मैंने मौत को भी इसी तरह क़रीब जाकर देखा और मैंने क्या ... हमने आपने सबने देखा है भय यद्यपि हमारी जैविक इच्छाओं या विशेषताओं के अंतर्गत आता है लेकिन हमें सायास इस पर काबू पाना होता है हम भले पूरी तरह काबू न कर पायें लेकिन कोशिश तो कर ही सकते हैं

शरद कोकास 

9 अक्तूबर 2021

17.अगर उसकी जगह मेरी माँ होती तो

शौचालय और स्नानघर यह शहरी सभ्यता के अंतर्गत आते हैं | इससे पहले नहाने के लिए  गाँव में तालाब हुआ करते थे और शौच हेतु लोग दिशा मैदान जाते थे | मराठी में आज भी शौच हेतु ' परसा कड़े ' यह शब्द प्रचलित है जिसका अर्थ होता है खेत की ओर | यद्यपि यह स्थिति पहले नहीं थी सिन्धु सभ्यता में मोहनजोदाड़ो में उत्खनन में एक विशाल स्नानागार निकला है ,इसका अर्थ यह है कि वहाँ सार्वजनिक स्नान की पद्धति थी, वैसे ही घरों में निजी शौचालय भी थे | लेकिन सिन्धु सभ्यता के पतन के बाद यहाँ पुनः ग्रामीण संस्कृति आ गयी और शौच व स्नान हेतु निजी व्यवस्था का चलन समाप्त हो गया | 

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फिर चल देगी पनिहारिन पनघट पर
टुकड़े - टुकड़े जोड़कर बनाया मृद्भाण्ड उठाकर
/
गीले वस्त्रों में निकल आएगी
मोहनजोदड़ो के स्नानागार से
कोई सद्यप्रसूता नहा कर

अपनी लम्बी कविता ‘पुरातत्ववेत्ता’ की इन पंक्तियों को लिखते हुए मेरे मन में जहाँ मोहनजोदड़ो के उसी विशाल स्नानागार का चित्र था वहीं कहीं अवचेतन में भंडारा के अपने उस पुराने मकान के पीछे के आँगन की चारदीवारी से घिरी बिना छत की वह  छोटी सी जगह भी थी जिसे हम ‘नहानी’ कहते थे |

यह स्नानागार जैसा स्नानागार तो बिलकुल भी नहीं था बैठने के लिए सीमेंट का एक पत्थर और सीमेंट का उखड़ा हुआ फर्श कपड़े टांगने के लिए दो दीवारों के बीच बंधा लोहे का एक तार नहाने के लिए हम लोग बाल्टियों में पानी भरकर रख लेते थे यद्यपि सीमेंट की एक छोटी टंकी यहाँ भी थी लेकिन उसमे बाबूजी के कपूरी पान के हरे पत्ते डूबे रहते थे ताकि उनका ताजापन बरकरार रहे

छत के अलावा इस नहानी में कोई दरवाज़ा भी नहीं था दरवाज़े की जगह दीवारों पर कील गाड़कर और उस पर पुरानी साड़ी का एक पर्दा टांगकर दरवाज़े का काम लिया जाता था । अगर पर्दा गिरा है और पानी की आवाज़ आ रही है इसका मतलब कोई बाथरूम में नहा रहा है और पर्दा साइड में दीवार की कील में अटका हुआ है मतलब बाथरूम खाली है यह हमारी संकेत भाषा थी मुझे व बाबूजी को तो वैसे भी परदे की ज़रूरत नहीं थी बस माँ उसका उपयोग करती थी

बाथरूम में जाने के बाद माँ एक बार ऊपर की ओर देख लेती ग़नीमत की आसपास ऊँची इमारतें नहीं थीं इसलिए आकाश के अलावा वहाँ कोई और ताकाझांकी नहीं कर सकता था लगी हुई एक ईमारत अवश्य थी लेकिन उसकी छत कुछ दूर थी माँ अपने मायके में सुविधाओं में पली थी इसलिए कभी कभार नहाकर आने के बाद दबे स्वरों में इस असुविधा का ज़िक्र करते हुए अपना असंतोष भी व्यक्त करती ही थी

ऐसे स्नानागार के विषय में सोचते हुए मुझे जन कवि जीवन यदु की कविता की एक पंक्ति याद आती है जिसमे लोगों की निगाहों से बचते हुए खुले में नहाती हुई एक स्त्री कहती है ‘काश उसका बस चलता तो वह चावल के बदले एक स्नानागार ख़रीद लेती बचपन के उन दिनों में यह बात मुझे सामान्य लगती थी मुझे तो यह भी नहीं पता था कि  स्नानघर तो दूर इस देश में बहुसंख्य लोगों के लिए शौचालय भी उपलब्ध नहीं हैं

भंडारा वाले इस घर में नहानी के बाद सबसे पीछे शौचालय था । यह शौचालय भी मोहल्ले के तमाम शौचालयों की तरह कच्चा शौचालय ही था उन दिनों शहर में शत प्रतिशत प्रतिशत मकानों में कच्चे शौचालय ही हुआ करते थे जिनके आउटलेट सड़क की ओर बने थे जिन पर टीन के पतरे के ढक्कन लगे होते थे । कई आउट लेट पर ढक्कन नहीं भी होते थे इसलिए ज़रूरी था कि सड़क पर चलते हुए निगाह सिर्फ सड़क पर रखी जाए वर्ना घर पहुँचकर खाना पीना मुश्किल हो जाता था ।  

शौचालयों को साफ करने की ज़िम्मेदारी नगर पालिका के सफाई कर्मचारियों की थी । उन्हें उनके श्रम का उचित मूल्य नहीं मिलता था इसलिए वे अक्सर हड़ताल किया करते थे हड़ताल के दिनों में  शौचालय की सफाई का संकट किसी राष्ट्रीय संकट से भी बड़ा दिखाई देता था । ऐसे समय अच्छे प्रतिष्ठित लोग भी लोटा लिये हुए किसी उपयुक्त स्थान की तलाश में भटकते दिखाई दे जाते थे । वैसे आम जनता तो खेतों का उपयोग सदियों से करती आ रही थी इसका प्रमाण है कि मराठी में शौच हेतु जाने के लिए ‘परसा कड़े ‘ शब्द का प्रयोग  किया जाता है जिसका अर्थ होता है ‘खेत की ओर’ पक्के मकानों में रहने वाले लोग आज भी आदतन इसी शब्द का उपयोग करते हैं

हम लोग इस मायने में सुखी थे कि हम लोगों के घर के निकट बहुत सारे खेत थे आपातकाल में इन्ही का उपयोग किया जाता था । मोहल्ले की महिलाएँ सुबह सुबह ,मुँह अँधेरे ही निवृत हो आती थीं पुरुषों के लिए तो खेत के अलावा रेल पटरी भी पास ही थी बाद में इन खेतों की ज़मीन पर सहकार नगर कॉलोनी बस गई लेकिन तब तक अधिकांश मकानों में कच्चे शौचालय पक्के शौचालयों में परिवर्तित हो चुके थे । हमारे इस मकान में उन्नीस सौ चौरासी  तक कच्चा शौचालय ही था ।

वह सुबह लगभग दस बजे हमारे घर के पिछवाड़े बना शौचालय का पिछला दरवाज़ा खोलती थी यह दरवाज़ा लकड़ी का था दरवाज़ा खुलने की आहट मिलते ही बाबूजी पानी की बाल्टी लेकर सजग हो जाते थे उसके पास एक टोकने में राख होती थी हालाँकि चूल्हे की राख हर घर में मिल जाती थी फिर भी अगर उसके पास राख ख़तम हो जाती तो वह माँ को आवाज़ देती ... “ मास्तरीन बाई, राख दो ..” माँ पीछे गली में निकलकर उसे राख देती साथ ही उसके हालचाल भी पूछ लेती वह टीन के एक टुकड़े से मैले पर राख डालती फिर उसे दूसरी टोकरे में समेट लेती सबसे दुखद दृश्य होता था उस टोकरे को सर पर लादकर एक घर से दूसरे घर ले जाते हुए उसे देखना । लोग उसे देखकर नाक मुंह पर हाथ रख लेते और जुगुप्सा भाव से मुंह फेरकर दूर दूर से निकल जाते

वह लोगों की मुखमुद्रा पर ध्यान दिए बिना निर्लिप्त भाव से अपना टोकना लिए अंत में चौक तक पहुँचती जहाँ उस जैसी और भी महिलाएँ आ जातीं कुछ देर में एक ट्रैक्टर आता जिसके पीछे एक टैंकर लगा होता उस पर खड़ा एक कर्मचारी उन सभी महिलाओं के पास से उनके टोकने लेकर मैला उस टैंक में उंडेल देता, फिर ट्रैक्टर शहर से बाहर कम्पोस्ट ग्राउंड की ओर  रवाना हो जाता बाद में नगर पालिका द्वारा उन्हें दो पहियों वाली गाड़ियाँ दी गईं थीं जिसमें दो बाल्टियाँ हुआ करती थीं । यद्यपि शौचालय के आउटलेट से गाड़ी तक मैला उन्हें टोकरे  में ही ढोना पड़ता था


उसके जाने के बाद बाबूजी दो बाल्टी पानी डालकर
शौचालय साफ करते थे और फिनाइल छिड़कते थे वे सर पर मैला ढोने की इस प्रथा के घोर विरोधी थे । वे बार बार कहते थे कि आज़ाद भारत में  यह बात कितनी शर्मनाक है कि एक मनुष्य गन्दगी फैलाता है और दूसरा मनुष्य उस गन्दगी को साफ करता है । वे हमेशा कहते, यहाँ जब तक जाति प्रथा मौज़ूद है , ऊँच नीच, छुआ छूत और यह वर्ग भेद मौजूद है तब तक हम सही मायनों  में आज़ाद ही नहीं हैं । आज भी सीवर साफ़ करने वाले और नाली साफ करने वाले मेहनत कशों को हम इसी नज़र से देखते हैं .

माँ जब पीछे का दरवाज़ा खोलकर उसे राख प्रदान करती तब मैं भी माँ का पल्लू पकड़कर पिछली गली में आ जाता और सर पर मैले का टोकरा उठाये माँ जैसी दिखाई देने वाली उस स्त्री को देखता वह दृश्य देखकर मुझे बहुत खराब लगता था । मुझे बाबूजी की गंभीर बातें बिलकुल समझ में नहीं आती थीं लेकिन उस स्त्री का दुःख और उसकी विवशता अच्छी तरह समझ में आती थी मैं यही सोचता कि उसकी जगह अगर मेरी माँ होती या मैं उसका बेटा होता तो क्या होता कुछ समय बाद जब मैं हिंदी प्राथमिक शाला में पढने गया तो मेरी मुलाकात ऐसे कुछ बच्चों से हुई जिनकी माताएँ यही काम करती थीं मैंने उनसे दोस्ती कर ली


शरद कोकास 

1 अक्तूबर 2021

16. हरे प्याज़ के बेसन की सोंधी महक


पहाड़ों से निकलने वाली नदियाँ उबड़ खाबड़ चट्टानी मार्गों से बहते हुए अपना रास्ता बनाती हैं लेकिन मैदानी क्षेत्रों से निकलने वाली नदियों के लिए रास्ता सुगम होता है शहरी सभ्यता की सरिता का उद्गम भी किसी न किसी ग्रामीण सभ्यता से ही होता है लेकिन वह सरल रास्तों से बहती हुई दिखाई देते हुए भी उतने सरल मार्ग से नहीं बहती शहर की भाषा, संस्कृति, परम्परा और रीति-रिवाज़ों में नित नई चीजों का समावेश होता रहता है लेकिन वह भी अपनी जड़ों से पूर्णरूपेण मुक्त भी नहीं होता

उन दिनों भंडारा शहर की नई सडकों पर बनने वाले पक्के मकानों में धीरे धीरे ड्राइंग रूम, बेड रूम, किचन, बाथ रूम,स्टडी रूम,टैरेस,बालकनी जैसे शब्दों की आवाजाही शुरू हो गई थी लेकिन गली कूचों के पुराने घरों में  दालान, छपरी बरामदा, चौका, रसोई, नहानी,छत, गच्ची,माड़ी जैसे ठेठ देशज शब्द ही राज कर रहे थे शहर में लोग गाय भी पालते थे जिसे गाय का गोठा कहते थे जो गौस्थान का अपभ्रंश था उसके लिए अंग्रेजी शब्द किसी को पता नहीं था

देशबंधु वार्ड स्थित हमारे इस मकान के आंगन से लगा हुआ एक खुला बरामदा या दालान था जिसे हम लोग छपरी कहते थे । वही हम लोगों का बिना दरवाज़े का ड्राइंग रूम था । बांस और मिट्टी से बनी इसकी छत  काले रंग के बहुत खुबसूरत नक्काशीदार लकड़ी के खम्भों पर टिका हुई थी उन दिनों तस्वीरों को फ्रेम कराकर दीवार में लगाने का चलन था सो बाबूजी ने छपरी की दीवारों को इस तरह सजा रखा था छपरी के बाद एक बड़ा कमरा था जो हम लोगों का बेड रूम या लिविंग रूम था छपरी का फर्श काले पत्थर का बना था लेकिन बेड रूम और बाद के कमरों का फर्श मिट्टी का था जिसे माँ प्रत्येक सप्ताह गोबर से लीपती थी

बाबूजी को गोबर की गंध से कोई आपत्ति नहीं थी लेकिन अपनी वैज्ञानिक समझ के अनुसार वे गोबर के उस घोल में थोड़ा सा फिनाइल मिला देते थे शयन कक्ष के बाद स्टोर रूम की तरह का एक छोटा कमरा और था उसके बाद चौका या रसोई थी जहाँ का गौरव साइड में सिगड़ी वाला मिटटी का एक चूल्हा था । सामने की छपरी से पीछे चौके तक सारे कमरे ट्रेन के डिब्बे के कूपों की भांति एक सीध में थे ।

चौका खुला हुआ था अर्थात उसके और आंगन के बीच कोई दरवाज़ा नहीं था सो रात के खाने के बाद सारे बर्तन स्टोर रूम में रखकर दरवाज़े  में साँकल लगा दी जाती थी और उसमें एक लम्बी सी संसी अटका दी जाती थी ताकि बर्तन अपने शरीर से आती दाल सब्जी आदि की गंध से घबराकर भाग न जाएँ ।  इस स्टोर रूम में जाली वाला बड़ा सा एक संदूक हुआ करता था जिसमें बिल्ली से बचाने के लिए दूध, बचा हुआ खाना इत्यादि सामान रख दिया जाता था, यह पेटी हमारे लिये फ्रिज की तरह ही थी । दूध को दो बार गरम किया जाता था ताकि वह गुस्से से फटे नहीं पीतल का एक स्टोव भी इसी रूम में रखा हुआ था जिसमे मिट्टी का तेल उपयोग में लाया जाता था मिट्टी के चूल्हे की तुलना में स्टोव का ग्रेड कुछ अधिक था इसलिए गैस का चूल्हा आने के बाद भी वह इसी स्टोर रूम में रहता आया

मैं वात्सल्य और सुरक्षा की चादर ओढ़कर अक्सर इसी पेटी या संदूक पर पालथी मारकर बैठ जाता और माँ बाबूजी को स्टोव पर चाय अथवा सब्जी बनाते हुए देखा करता था । जलते हुए मिट्टी के तेल की गंध मुझे अच्छी लगती थी उन दिनों गंध के मामले में हम लोग इतने एक्सपर्ट हो गए थे कि चाय सूंघकर ही बता देते थे कि वह लकड़ी के चूल्हे पर बनी है, पत्थर के कोयले पर या केरोसिन वाले स्टोव पर माँ के अवकाश के दिनों मे बाबूजी इसी स्टोव  पर खाना बनाते थे । पीतल का वह स्टोव उच्च शिक्षा हेतु मेरे घर से बाहर निकलने तक मेरे साथ था

माँ को लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनाना पसंद था लेकिन कभी कभी चूल्हे की बजाय स्टोव पर ही खाना बनाती थी  । माँ को चूल्हे पर खाना बनाते हुए देखना मुझे बहुत अच्छा लगता था उनके पास हामिद की दादी वाला एक चिमटा भी था और एक फुंकनी भी जिससे फूँककर वे मृत होते हुए अंगारों में जान डाल देती थीं चूल्हे पर रखे तवे पर रोटी सेंकने के बाद वे चिमटे से उसे पकड़कर चूल्हे में जलती लकड़ियों के पास अंगारों पर रख देतीं और रोटी ख़ुशी से फूलकर कुप्पा हो जाती साइड की सिगड़ी पर कांसे की एक बटलोई रखी होती जिस तक धीरे धीरे पहुँचती आँच में खदबद खदबद के धीमे सुरों में पकती दाल अपने प्रोटीन होने के दर्प में देर तक गलती रहती, जिससे उठता झाग भाफ़ के साथ आन्दोलन करता हुआ धीरे धीरे बाहर आ जाता और बर्फ की तरह ढक्कन के किनारे जम जाता आज लाइट पेट्रोलियम गैस,इन्डक्शन, प्रेशर कुकर और माइक्रोवेव के ज़माने में यह सब सुख लुप्तप्राय हैं

हमारे घर में स्वाद और सोंधेपन का यह उत्सव अक्सर मनाया जाता कभी कभी माँ स्टोव या चूल्हे पर लोहे की कढाई में सरसों के तेल में, लहसुन,अमचूर व गुड़ डालकर हरे प्याज़ का सोंधे स्वाद वाला भुना हुआ बेसन बनाती थी बेसन बनते हुए देखना मेरा प्रिय शगल था देख देख कर ही मैं बेसन बनाना सीख गया आज भी मैं उसी तरीके से सोंधे स्वाद वाला बेसन बनाता हूँ और माँ को याद करता हूँ । चालीस वाट के बल्ब की पीली रौशनी में पकते हुए हरे प्याज़ के बेसन का वह चित्र और भुनते बेसन की गंध आज भी मेरे अवचेतन के एल्बम में विद्यमान है माँ को याद करते हुए अक्सर मैं निदा फ़ाज़ली साहब की इन पंक्तियों को याद करता हूँ ...

 बेसन की सोंधी रोटी पर, खट्टी चटनी जैसी माँ

याद आता है चौका-बासन,चिमटा फुंकनी जैसी माँ 

हमारे इस घर में चौके  के बाद एक छोटा सा आंगन था जिसके अंत में गड्ढे जैसी दिखाई देने वाली एक बड़ी सी पानी की टंकी थी जिसके बहुत नीचे नगरपालिका का नल लगा था । पाइपलाइन पुरानी हो जाने के कारण नल से पानी आना बन्द हो गया था इसलिये एक गढ्ढा खोदकर नल का लेवल नीचे कर दिया गया था । गढ्ढे को सीमेंट से भूमिगत टैंक का आकार दे दिया गया था कुएँ की तरह दिखने वाली इस टंकी में रस्सी से बाल्टी बान्धकर लटका दी जाती थी और पीने का पानी भर लिया जाता था । भंडारा में अधिकतर सरकारी नल इसी स्थापत्य में स्थापित थे

नल के पास साइड में सीमेंट की एक बड़ी टंकी और थी जिसका पानी निस्तार के काम आता था मटकों व पीतल की गुण्डीयों  में पीने का पानी भर जाने के बाद रोने बिसुरने के लिए नल को बहता हुआ छोड़ दिया जाता था फिर जब उस निचली टंकी में काफी पानी इकठ्ठा हो जाता और वह कुएँ की तरह दिखाई देने लगती उसमे रस्सी से बंधी बाल्टी डालकर वह पानी ऊपर की बड़ी टंकी में भर दिया जाता यह काम बाबूजी ही करते थे एक तरह से यह बाबूजी की एक्सरसाइज भी थी

इस बड़ी टंकी पर मकान मालकिन का आधिपत्य था लेकिन वे अक्सर खेती बाड़ी के काम से अपने गाँव में रहा करती थीं इसलिए उसका आनंद हम लोग ही उठाते थे कभी कभी माँ मेरे सारे कपडे उतारकर मुझे इस टंकी में छोड़ देती और मैं मछली की तरह इसमें तैरने की कोशिश करता इस में जमने वाली काई की  माह में एक बार सफाई करना ज़रूरी था । आज शावर के नीचे नहाने वाले और आर ओ से पानी पीने वालों के लिए यह जानना मुश्किल होगा कि उन दिनों पानी कितनी मुश्किल से प्राप्त होता था

 शरद कोकास 


6 अगस्त 2021

15. सदी के कानों में पुराने दरवाज़ों की चीख़

कभी कभी सोचता हूँ यदि एक मनुष्य के रूप में इस पृथ्वी पर जन्म नहीं लेता तो क्या होता ? और जन्म लेकर भी अगर इतने दिन जी नहीं पाता तो उस स्थिति में क्या होता ? आज भी जो मैं बचा हुआ हूँ उसमें स्वयं के लिए कितना हूँ और औरों के लिए कितना ? एक दिन अपने मन में उपजे इन सवालों पर सोचते हुए मेरा साक्षात्कार लीलाधर जगूड़ी की कविता ‘ बची हुई पृथ्वी’ की इन पंक्तियों से हुआ ...

 

आज का दिन इस घाटी में मेरा दूसरा दिन है

और एक एक कण  की रण गाथा से भरी

समुद्र सहित तैरती यह पृथ्वी  

आती जाती रोशनी का तट है

ज़मीन की भाषा में ज़मीन को

पानी की भाषा में पानी को

कुछ कहना कितना मुश्किल है

अपनी भाषा में अपने को कुछ भी कह सकूँ और यहाँ रह भी सकूँ

कितना मुश्किल है

फिर भी हरे टुकड़ों के बीच एक जगह एक घर होता

     पृथ्वी नामक इस ग्रह पर जन्म लेने के पश्चात प्रत्येक प्राणी जिसे मानव होने की गरिमा प्राप्त है इसे हमारी पृथ्वी या अपनी पृथ्वी कहकर संबोधित करने लगता है सच भी है लेकिन यह पृथ्वी तब तक ही उसकी होती है जब तक वह जीवित रहता है

 किराये के मकान में रहने वाले लोगों की मनोवृति भी कुछ इसी तरह की होती है कि वे जब तक उस मकान में रहते हैं उसे अपना ही मकान समझते हैं बस यह कि मकान में रहने का किराया तो वे देते हैं लेकिन पृथ्वी पर रहने का किराया किसी को नहीं देते हाँ अत्याचार वे पृथ्वी पर भी उसी तरह करते हैं जिस तरह मकान पर करते हैं लेकिन इनमे कुछ विश्व दृष्टिकोण सम्पन्न लोग ऐसे अवश्य होते हैं जो पृथ्वी की तरह किराये के मकान को भी बहुत संभाल कर रखते हैं, वे अनावश्यक तोड़फोड़ नहीं करते ना ही दीवारों पर कीलें ठोकते हैं बाबूजी कुछ इसी तरह के किरायेदार थे


 देशबन्धु वार्ड में स्थित गं.भा. पार्वती बाई चव्हाण का यह मकान जहाँ हम लोग किराए से रहने आये थे अपने आप में बहुत ख़ूबसूरत था । मुख्य सड़क पर एक संकरी सी गली थी जो दूसरी ओर रिंग रोड पर निकलती थी गली के मुहाने पर स्थित इस दुमंजिले मकान में कवेलुओं का छप्पर था

 उन दिनों गाँव से शहर बनते हुए इन छोटे शहरों में फ्लैट जैसा शब्द कोई जानता ही नहीं था मकानों में आंगन का कांसेप्ट अनिवार्य था बाल्टी भर पानी में गोबर घोलकर रोज़ सुबह इस आँगन में छिड़काव किया जाता था जिसे ‘सड़ा डालना’ कहते थे वहीं कहीं पर एक तुलसी चौरा भी होता था जिसमे शाम को एक दीपक जलाया जाता था अगरबत्ती की गंध हवाओं के साथ दूर दूर तक फ़ैल जाती थी और वर्तमान की तरह कुछ देर मौज़ूद रहती थी उन दिनों बिना आंगन के मकान की कल्पना करना भी बहुत कठिन था

 मैं सोचता हूँ अगर गाँव के घरों में आँगन न होते  तो आंगन पर इतने सुन्दर लोक गीत कैसे रचे जाते मुझे याद आता है एक बन्ना गीत जिसमे कहा जाता है “ आँगन  में ठाड़े बन्ना सोचै, बन्नी को लेने जाना है या फिर वह सोहर गीत जिसमें बिटिया के जन्म लेने पर ससुर जी की स्थिति पर व्यंग्य किया जाता है “बिटिया भये के ससुरा ने जब सुनी उनकी छूट गई धुतिया, अंगना बिछाओ मोरे खटिया ,  “ और एक चर्चित गीत तो सबने सुना ही  है “ मेरे अंगने में तुम्हारा क्या काम है

 


गाँव के मकानों में अमूमन आंगन में यदि चारदीवारी न हो तो दरवाज़े की ज़रूरत ही नहीं होती थी लेकिन यदि मिटटी की चारदीवारी हो तो उसमे बांस का एक फाटक बना दिया जाता था ताकि मवेशी आदि भीतर न आ सके .इससे अधिक मजबूत दरवाज़े की कोई आवश्यकता नहीं होती थी . इस मकान में भी एक बहुत बड़ा आँगन था जिसके निजत्व की रक्षा ईटों की एक चारदीवारी करती थी  थी पुरानी ईटों का सहारा लिये खड़ा था टीन का एक दरवाज़ा जो प्रत्येक आगंतुक के हाथों का स्पर्श पाकर ज़ोरों से चीख पड़ता था। उस ज़माने में काल बेल उच्च वर्ग की सुविधाओं में आती थी और कुंडी खटखटाकर या दरवाज़ा पीट कर दस्तक देने का चलन था सभ्य भाषा में इसे नॉक करना कहते थे टीन का दरवाज़ा सायास छूने की यह आवाज़ ही दस्तक का काम करती थी इसका लाभ यह होता था कि घर के भीतर रहने  वालों को पता चल जाता था कि कोई आया है

 यह दरवाज़ा कुछ इस तरह का था कि बाहर से ही हाथ डालकर इसकी भीतरी कड़ी अटकाकर इसे बंद किया जा सकता था, उसी तरह बाहर से इसे खोला भी जा सकता था लेकिन यह हिक़मत बस हम लोगों को ही आती थी और इस तरह दरवाज़ा खोलना हर किसी के बस की बात भी नहीं थी सो आनेवाले बाहर लगी लोहे की कड़ी जोर से बजाते थे भंडारा के पुराने घरों में लोहे या टीन के इस तरह के दरवाज़े आज भी मौज़ूद  हैं और अपनी धातु, अपने घनत्व, अपनी मजबूती और अपने आदिम होने के अहम के साथ अपनी विशिष्ट आवाज़ में अपनी उपस्थिति दर्शाते हुए हुए आधुनिक सदी के कानों में अपनी चीख़ दर्ज कर रहे हैं


शरद कोकास 

4 अगस्त 2021

14.इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए


शिंगणापुरकर की माड़ी का वह जीना मैं कभी नहीं भूला था भंडारा छोड़ देने के बाद भी जब कभी भंडारा जाता उस माड़ी के सामने से निकलते हुए एक बार उस जीने की और निगाह ज़रूर डालता था बरसों बाद मुक्तिबोध के शहर राजनांदगांव जाना हुआ  वहाँ दिग्विजय महाविद्यालय के परिसर में मुक्तिबोध के निवास का वह चक्करदार जीना देखते हुए सहसा मुझे भंडारा की उन सीढ़ियों का स्मरण हो आया माँ की नर्म गोद में, उनींदी अवस्था में, उन्ही सीढ़ियों पर अवचेतन में स्मृति को दर्ज करने का पहला पाठ मैंने पढ़ा था


 बाबूजी के वे संघर्ष के दिन थे शहर दर शहर भटकते हुए , प्राइवेट परीक्षार्थी के तौर पर परीक्षाएँ पास करते हुए, बेहतर नौकरी की तलाश में वे भंडारा आ गए थे यही भंडारा शहर उनका अंतिम पड़ाव घोषित होने वाला था  बरसों बाद जब मैंने पिता की आँखों में झांककर उनका अतीत देखना चाहा तो मुझे ऐसा लगा जैसे उन दिनों वे मुक्तिबोध की इन पंक्तियों को जी रहे थे ..

                                                                           असफलता का धूल कचरा ओढ़े हूँ

इसलिए कि वह चक्करदार जीनों पर मिलती है

छल-छद्म धन की

किन्तु मैं सीधी सादी पटरी पर दौड़ा हूँ जीवन की

फिर भी मैं अपनी सार्थकता से खिन्न हूँ

विष से अप्रसन्न हूँ

इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए


बाबूजी फिर किराये के एक बेहतर मकान की तलाश में थे अपने जीवन की शुरुआत किराये के मकान से करने वाले लोग एक मकान के बाद दूसरा मकान बदलते हुए किराए के मकान में उपलब्ध जगह, किराये की राशि और मासिक आय इनके बीच समीकरण स्थापित करते हुए इसी तरह जीवन के अर्थशास्त्र का कठिन गणित सुलझाते हैं मेरे जन्म के पश्चात शिंगणापुरकर की माड़ी में बाबूजी बहुत कम समय रहे , शायद एक या डेढ़ साल उसके बाद हम लोग एक बेहतर मकान में शिफ्ट हो गये जो वहाँ से लगभग एक किलोमीटर दूरी पर देशबंधु वार्ड में स्थित था । उस मकान में शिफ़्ट करने का कोई चित्र मेरी स्मृति में नहीं है संभव है उन दिनों मैं माँ के साथ अपने ददिहाल बैतूल या ननिहाल झाँसी में रहा होऊँ   

 देशबंधु वार्ड स्थित इस मकान का किराया उस समय के हिसाब से दस या बारह रुपये मासिक था सबसे अच्छी बात यह थी कि यह मकान भूतल पर था और मुझ जैसे घुटने घुटने चलने वाले बच्चे के लिए यहाँ भरपूर मिट्टी उपलब्ध थी सामने आंगन, फिर छपरी या बरामदा फिर बीच का कमरा, उसके बाद एक छोटा सा स्टोर रूम फिर रसोई और पीछे आंगन, अंत में स्नानघर और शौचालय यह मकान बहुत अधिक सुविधाजनक तो नहीं था लेकिन बाबूजी इससे बेहतर मकान के लिए अधिक किराया देने की स्थिति में नहीं थे सो वे यहीं ठहर गए और इसी मकान में उन्होंने बीस साल से भी अधिक समय तक निवास किया । आगे चलकर किराये में वृद्धि के साथ इस मकान में भी कुछ सकारात्मक परिवर्तन हुए मेरे बचपन के एल्बम में इसी मकान के चित्र सबसे अधिक हैं


देशबंधु वार्ड जिसका पुराना नाम हलधरपुरी था एक काफी पुराना मोहल्ला था और वहाँ अधिकांश  निम्नवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय लोग रहा करते थे । फटे पुराने कपड़ों में लिपटे, आवारागर्दी करते हुए नंगे पांव गलियों में भटकने वाले बच्चे मोहल्ले के नाम का एक गाना गाते थे ...” हलदर पुरी गड़बड करी, एकाची बायको शम्भर घरी “ अर्थात हलधर पुरी में बहुत गड़बड़ है यहाँ एक की पत्नी सौ घरों में पाई जा सकती है । बचपन में मेरे कानों पर तो पहरा नहीं था लेकिन समझ पर बंदिशें अवश्य थीं गाली गलौज और बुरी बातें सुनकर भी न समझ पाने वाले बचपन के उन मासूम दिनों में मुझे इसका मतलब पता नहीं चला लेकिन जब पता चला तो उन बच्चों पर बहुत गुस्सा आया लेकिन तब तक मैं बड़ा हो चुका था और मुझसे उम्र में बड़े वे बच्चे भी काफी बड़े हो गए थे अब उनके पास कहने के लिए कुछ और अच्छी-बुरी बातें और करने के लिए कुछ और अच्छे-बुरे काम थे

 देशबंधु वार्ड स्थित इस मकान की मकान मालकिन थीं गं. भा. पार्वती बाई चव्हाण जो ऊपर की मंजिल में रहा करती थीं चेहरे से धीर गंभीर, कभी न मुस्कुराने वाली , नौगज़ी लुगड़ा पहनने वाली, हमेशा पूजा पाठ करने वाली, छुआ छूत मानने वाली,बात बात पर टोकने वाली लेकिन अनुशासन प्रिय पार्वती बाई की उम्र उस समय पचास के लगभग रही होगी उन्हें देखकर डर सा लगता था उनका रसोई घर व स्नानघर पीछे आँगन में ही था इसलिए वे अक्सर नीचे ही रहती थीं यह एक साझा आंगन था इसलिए उनकी निगाहों से बचना मुश्किल था उनके साथ उनकी एक नातिन भी रहा करती थी जिसका नाम अनुसूया था सब उसे अन्नू कहते थे अन्नू दीदी की तरह मैं भी उन्हें नानी कहने लगा लेकिन डर उनसे हमेशा लगता रहा नानी कुछ क्लास पढ़ी लिखी थीं और दस्तख़त करना जानती थीं वे अपने नाम के पहले  गं. भा . लिखती थीं । वे हमेशा काली साड़ी पहनती थीं ( चित्र में देखिये)

 

मुझे नहीं पता था कि गं.भा. का क्या अर्थ होता है और नाम से पूर्व में इसे लिखने का क्या औचित्य है कुछ बड़े होने के बाद एक दिन मैंने बाबूजी से इसका अर्थ पूछा तो उन्होंने बताया “ गं.भा. का अर्थ होता है गंगा भागीरथी । जिस तरह पुरुषों के लिए श्री, कन्याओं के लिए कुमारी,  विवाहित स्त्रियों के लिए श्रीमती या सौभाग्यवती या सौ. लिखा जाता है, उसी तरह गंगा भागीरथी या गं.भा. इस शब्द समुच्चय का प्रयोग विधवा स्त्रियों के नाम का उच्चारण करने से पहले किया जाता है ।“ मुझे अच्छा लगा कि समाज में विधवा स्त्रियों के लिए भले ही सम्मानजनक स्थान न हो लेकिन हमारी भाषा में तो है उस दिन मुझे भाषा के साथ साथ नानी पर भी गर्व हुआ

26 जुलाई 2021

13. दो रुपये किराये में शिंगणापुरकर की माड़ी


भंडारा में बाबूजी जब बेला के बेसिक ट्रेनिंग कॉलेज में नौकरी करने के लिए आये तो शहर में नए आने वालों की तरह उनके सामने भी रहने की समस्या थी उन्हें शीघ्र ही रहने का एक ठिकाना मिल गया गान्धी चौक से खामतलाव जाने वाले मार्ग पर शिंगणापुरकर का मकान था जिसमे ऊपर की ओर बना एक बड़ा सा कमरा था बाबूजी बताते थे कि महंगाई के उन दिनों में भी इस कमरे का किराया दो रुपये था |

भंडारा में इस तरह ऊपर की ओर बने कमरे को माड़ी कहते हैं इस माड़ी के एक कोने में स्नानघर और दूसरे कोने में रसोई के लिए जगह थी बीच के हिस्से का उपयोग रात में बेड रूम की तरह और दिन में ड्राइंग रूम की तरह किया जा सकता था इस माड़ी की छत खपरैल की थी और सामने की ओर एक गैलरी थी मकान मालिक शिंगणापुरकर नीचे की ओर  रहते थे मकान में प्रवेश के लिए एक कॉमन गेट था जिससे भीतर प्रवेश करने के बाद बाजू में बनी सीढ़ियों से चढ़कर ऊपर की ओर जाना पड़ता था

 वे माँ बाबूजी की युवावस्था के दिन थे एक कमरा उन दोनों के लिए काफी था वे लोग राजेश जोशी कि कविता ‘ शहद जब पकेगा’ की इन पंक्तियों को जी रहे थे.....

 


             अभी दूर हैं वे दिन

जब ज़रूरत होगी हमें

अलग अलग रजाई की

जब पृथ्वी हो जायेगा तुम्हारा पेट

जब आकाश के कान में फुसफुसायेगी  पृथ्वी

जब वृक्ष से आंख चुरा, तुम चुराओगी मिट्टी

 


संयुक्त परिवार से निकलकर अकेले रहने वाले विवाहित लोगों के लिए जहाँ ढेर सारी कठिनाइयाँ होती हैं वहीं मन मर्जी से जीने की स्वतंत्रता भी होती है शहर की सुविधाओं का वे भरपूर उपभोग कर रहे थे भंडारा में मनोरंजन के और कोई साधन तो थे नहीं बस एक सिनेमाघर था माँ बाबूजी दोनों को सिनेमा देखने का शौक था शहर में लगभग एक सप्ताह में फिल्म बदल ही जाती थी इसलिए फिल्म देखना यह उनका साप्ताहिक कार्यक्रम होता था इस मकान का पहला बिम्ब मेरे मन में इसी सिनेमा से जुड़ा हुआ है

 


मेरा जन्म तो बैतूल में हुआ था लेकिन भंडारा में मेरा प्रथम गृह प्रवेश इसी शिंगणापुरकर की माड़ी में हुआ भूले हुए स्वप्नों की तरह इस एक कमरे वाले घर की मेरी स्मृतियों में माता पिता की युवावस्था के बहुत खूबसूरत दृश्य हैं इनमे सबसे पहला दृश्य तो बखूबी याद है एक दिन माँ बाबूजी सिनेमा का शाम वाला शो देखकर लौट रहे थे उन दिनों मेरी उम्र चोवीस में से बारह घंटे सोने वाली थी अतः मैं सिनेमा देखते हुए ही सो गया था और लौटते वक़्त माँ की गोद में भरपूर नींद का सुख ले रहा था माँ ऊपर कमरे में जाने के लिए सीढ़ियाँ चढ़ रही थी कि अचानक मेरी आँखें खुलीं मैंने नींद से जागकर क्षण भर के लिए आँखें खोलकर उस ‘माड़ी ‘ को  देखा था, मेरे अवचेतन में उस मकान का प्रथम चित्र वही है ।

 यह मनोविज्ञान का एक नियम है कि जिस समय हम नींद में जाने की तैयारी में होते हैं अथवा नींद से जागते हैं उस समय कुछ देर के लिए हमारा मस्तिष्क ट्रांस में चला जाता है यह एक हिप्नोटिक स्टेट होती है और इस स्थिति में अवचेतन द्वारा किसी भी तरह का दृश्य, आवाज़ , स्पर्श आदि ज्यों का त्यों ग्रहण किये जाने  की सबसे अधिक संभावना होती है इस समय अवचेतन पत्थर की एक स्लेट की तरह होता है, उस समय आँखे जो देखती हैं वह दृश्य या कानों सुनी आवाज़ उस पर हमेशा के लिए अंकित हो जाने की सम्भावना होती है


 बरसाती की तरह एक कमरे वाले मकान शिंगणापुरकर की माड़ी में बीते हुए शैशवावस्था के दिनों के ऐसी ही अनेक क्षणिक अनुभूतियों के बिम्ब  आज भी मेरे अवचेतन में उपस्थित हैं इनमें माँ के दूध की गंध के अलावा उनकी देह गंध है, उनके हाथों का ममता भरा स्पर्श है, तुलसी चौरे पर जलती अगरबत्ती की खुशबू है, उफनते हुए दूध की महक है, पके केले और धान की लाई का स्वाद है , रेडियो से आती किसी पुराने गाने की धुन  है, माँ बाबूजी के गुनगुनाये गीत हैं, रात्रि के किसी पहर में उनकी साँसों का आरोह अवरोह है और भी बहुत कुछ है जो मेरे भूले बिसरे स्वप्नों की तरह मेरी निजी अनुभूतियों के खाते में दर्ज  हैं

शरद कोकास 

 

16 जुलाई 2021

12.कट चाय,खर्रा और गाँधीजी का चश्मा

मध्य सदी का मध्य प्रांत : एक जन इतिहास- कड़ी क्रमांक 12 



भंडारा की गलियाँ और मोहल्ले तो अपने भीतरी गठन में किसी अर्ध शहरी और ग्रामीण क्षेत्र जैसे ही थे लेकिन एक जगह ऐसी थी जहाँ पहुँचकर लोग अपने शहरी होने होने का दावा कर सकते थे वह स्थान था भंडारा का प्रसिद्ध गाँधी चौक मेन रोड पर स्थित इस चौक में बापू की एक प्रस्तर प्रतिमा विद्यमान है महाराष्ट्र बनने के कुछ समय बाद यह प्रतिमा स्थापित की गई थी और उसके चारों ओर एक गोलाकार रेलिंग लगाई गई थी 

गान्धी जी की प्रस्तर प्रतिमा में शिल्पकार ने चश्मा नहीं बनाया था लेकिन हमारे कर्णधारों की ज़िद थी कि उन्हें चश्मा पहनायेंगे ही इसलिए उन्हें साल में दो बार दो अक्तूबर और तीस जनवरी के दिन  फूलों की माला के साथ चश्मे की फ्रेम भी पहनाई जाती थी   आश्चर्य की बात यह कि दो चार दिनों बाद वह फ्रेम वहाँ दिखाई नहीं देती थी बाद में ज्ञात होता था कि उसे कोई उतारकर ले जाता था निश्चित ही वह कोई  ज़रूरतमन्द होता होगा जिसे गाँधीजी से अधिक चश्मे की ज़रूरत रहती होगी । गाँधीजी के चश्मे की खाली गोल फ्रेम  उसके चश्मा बनाने के काम आ जाती होगी समय के साथ उस फ्रेम का चलन ख़त्म हो गया लेकिन अब वह फिर से लौटकर आ गई है और फैशन में है


 एक तरह से बाज़ार गाँधी चौक से ही शुरू होता था पर वैसे तो दिन भर ही लोगों का जमावड़ा रहता था लेकिन शाम के समय यहाँ भीड़ बढ़ जाती थी शहर के युवा और अधेड़ पुरुष टी स्टाल पर कप और बशी यानि प्लेट में मिलने वाली फुल चाय,कट चाय, हाफ चाय या बादशाही चाय की चुस्कियों के साथ अपनी शामें यहीं बिताते थे अमूमन दो व्यक्ति मिल कर एक फुल चाय लेते थे जो चीनी मिट्टी की कप बशी में दी जाती थी फिर उसमे से एक व्यक्ति आधी चाय बशी में उंडेल देता और सामने वाले को कप ऑफर करता बांटने वाले का खुद प्लेट में लेना अनिवार्य था यह एटिकेट्स और मैनर्स के तहत आता था विभाजन करने वाला ही अक्सर चाय का पैसा भी चुकाता था  चाय कप में मिले या प्लेट में विभाजित चाय का महत्व दोनों के लिए बराबर होता था आप चाहें तो इसका सम्बन्ध देश के विभाजन से भी जोड़कर देख सकते हैं

 


वैसे तो भंडारा के निवासी साल भर चाय पीते थे लेकिन गर्मी के दिनों में आदर्श टाकीज़ के गेट पर खड़े ठेले पर बिकने वाला ठण्डा लेमन सोडा पीकर अपनी प्यास बुझाते थे यह सोडा काँच की बोतल में मिलता था जिसके मुंह पर कार्बन डाई ऑक्साइड के दबाव से एक काँच की गोली अटकी होती थी जिसकी वज़ह से भीतर का सोडा बाहर नहीं आता था फिर ओपनर नुमा एक उपकरण से दबाव डालकर वह गोली भीतर सटकाई   जाती और पूरे प्रेशर से बाहर आने वाले सोडे को गटका जाता कभी कभी सोडे को ग्लास में निकालकर उसमे काला नमक और नीबू निचोड़कर उसे नया स्वाद भी दिया जाता उसके बाद चौक आने वाले पर्यटक टाइम पास के लिए वरहाड़ी, ठवकर या गोडबोले जर्दा का बना हुआ खर्रा तथा भरडा या चिकनी सुपारी युक्त चूने कत्थे वाले पान  खाकर अपने मुख की शोभा बढाते थे  यह पान भण्डार सिर्फ पान बेचने की दुकानें मात्र नहीं थे बल्कि यहाँ ग्राहकों के लिए बाकायदा बेंच आदि पर बैठने की व्यवस्था होती थी और फिर चौपाल की तरह मित्रों की गपशप चला करती थी बाद में पान ठेलों पर ज्यूक बॉक्स की तरह फरमाइश पर फ़िल्मी गानों के रिकॉर्ड भी बजाये जाने लगे थे

 


इसके अलावा भी उनके मनोरंजन के लिए गाँधी चौक पर और आसपास बहुत सारे आकर्षण के केंद्र थे जैसे सब्जी बाज़ार, नगरपालिका का भवन, एक सार्वजनिक पुस्तकालय, बुक स्टाल और आदर्श सिनेमाघर । किसी के घर गाँव से कोई आता तो उसे गाँधी चौक अवश्य लाया जाता यह जताने के लिए कि “देखो अब हम शहर में रहते हैं भंडारा के गाँधी चौक में आज भी यह दृश्य अपने आधुनिक रूप जैसे जूमो लाइट , बड़ी बड़ी इमारतों और जगमगाती दुकानों के साथ बढ़ते घनत्व में उपस्थित है  ।  

शरद कोकास