कभी कभी सोचता हूँ यदि एक मनुष्य के रूप में इस पृथ्वी पर
जन्म नहीं लेता तो क्या होता ? और जन्म लेकर भी अगर इतने दिन जी नहीं पाता तो उस
स्थिति में क्या होता ? आज भी जो मैं बचा हुआ हूँ उसमें स्वयं के लिए कितना हूँ और
औरों के लिए कितना ? एक दिन अपने मन में उपजे इन सवालों पर सोचते हुए मेरा
साक्षात्कार लीलाधर जगूड़ी की कविता ‘ बची हुई पृथ्वी’ की इन पंक्तियों से हुआ ...
आज का दिन इस घाटी में मेरा दूसरा दिन है
और एक एक कण की रण
गाथा से भरी
समुद्र सहित तैरती यह पृथ्वी
आती जाती रोशनी का तट है
ज़मीन की भाषा में ज़मीन को
पानी की भाषा में पानी को
कुछ कहना कितना मुश्किल है
अपनी भाषा में अपने को कुछ भी कह सकूँ और यहाँ रह भी सकूँ
कितना मुश्किल है
फिर भी हरे टुकड़ों के बीच एक जगह एक घर होता
पृथ्वी नामक इस ग्रह पर जन्म लेने के पश्चात प्रत्येक
प्राणी जिसे मानव होने की गरिमा प्राप्त है इसे हमारी पृथ्वी या अपनी पृथ्वी कहकर
संबोधित करने लगता है ৷ सच भी है ৷ लेकिन यह पृथ्वी तब तक ही उसकी होती है जब तक वह
जीवित रहता है ৷
किराये के मकान में रहने वाले लोगों की मनोवृति भी कुछ
इसी तरह की होती है कि वे जब तक उस मकान में रहते हैं उसे अपना ही मकान समझते हैं ৷ बस यह कि मकान में रहने का किराया तो वे देते हैं
लेकिन पृथ्वी पर रहने का किराया किसी को नहीं देते ৷ हाँ अत्याचार वे पृथ्वी पर भी उसी तरह करते हैं जिस तरह मकान
पर करते हैं ৷ लेकिन इनमे कुछ विश्व
दृष्टिकोण सम्पन्न लोग ऐसे अवश्य होते हैं जो पृथ्वी की तरह किराये के मकान को भी
बहुत संभाल कर रखते हैं, वे अनावश्यक तोड़फोड़ नहीं करते ना ही दीवारों पर कीलें
ठोकते हैं ৷ बाबूजी कुछ इसी तरह के
किरायेदार थे ৷
देशबन्धु वार्ड में स्थित गं.भा. पार्वती बाई चव्हाण
का यह मकान जहाँ हम लोग किराए से रहने आये थे अपने आप में बहुत ख़ूबसूरत था । मुख्य
सड़क पर एक संकरी सी गली थी जो दूसरी ओर रिंग रोड पर निकलती थी ৷ गली के मुहाने पर स्थित इस दुमंजिले मकान में कवेलुओं
का छप्पर था ৷
उन दिनों गाँव से शहर बनते हुए इन छोटे शहरों में फ्लैट जैसा शब्द कोई जानता ही नहीं था ৷ मकानों में आंगन का
कांसेप्ट अनिवार्य था ৷ बाल्टी भर पानी में गोबर
घोलकर रोज़ सुबह इस आँगन में छिड़काव किया जाता था जिसे ‘सड़ा डालना’ कहते थे ৷ वहीं कहीं पर एक तुलसी चौरा भी होता था जिसमे शाम को
एक दीपक जलाया जाता था ৷ अगरबत्ती की गंध हवाओं के
साथ दूर दूर तक फ़ैल जाती थी और वर्तमान की तरह कुछ देर मौज़ूद रहती थी ৷ उन दिनों बिना आंगन के मकान की कल्पना करना भी बहुत
कठिन था ৷
मैं सोचता हूँ अगर गाँव के घरों में आँगन न होते तो आंगन पर इतने सुन्दर लोक गीत कैसे रचे जाते ৷ मुझे याद आता है एक बन्ना गीत जिसमे कहा जाता है “ आँगन
में ठाड़े बन्ना सोचै, बन्नी को लेने जाना
है या फिर वह सोहर गीत जिसमें बिटिया के जन्म लेने पर ससुर जी की स्थिति पर
व्यंग्य किया जाता है “बिटिया भये के ससुरा ने जब सुनी उनकी छूट गई धुतिया, अंगना
बिछाओ मोरे खटिया , “ और एक चर्चित गीत तो
सबने सुना ही है “ मेरे अंगने में
तुम्हारा क्या काम है ৷”
गाँव के मकानों में अमूमन आंगन में यदि चारदीवारी न हो तो दरवाज़े की ज़रूरत ही नहीं होती थी लेकिन यदि मिटटी की चारदीवारी हो तो उसमे बांस का एक फाटक बना दिया जाता था ताकि मवेशी आदि भीतर न आ सके .इससे अधिक मजबूत दरवाज़े की कोई आवश्यकता नहीं होती थी . इस मकान में भी एक बहुत बड़ा आँगन था जिसके निजत्व की रक्षा ईटों की एक चारदीवारी करती
थी थी ৷ पुरानी ईटों का सहारा लिये खड़ा था टीन का एक दरवाज़ा जो
प्रत्येक आगंतुक के हाथों का स्पर्श पाकर ज़ोरों से चीख पड़ता था। उस ज़माने में काल
बेल उच्च वर्ग की सुविधाओं में आती थी और कुंडी खटखटाकर या दरवाज़ा पीट कर दस्तक देने
का चलन था ৷ सभ्य भाषा में इसे नॉक
करना कहते थे ৷ टीन का दरवाज़ा सायास छूने की यह आवाज़ ही दस्तक का काम करती थी । इसका लाभ यह होता था कि घर के भीतर रहने वालों को पता चल जाता था कि कोई आया है।
यह दरवाज़ा कुछ इस तरह का था कि बाहर से ही हाथ डालकर
इसकी भीतरी कड़ी अटकाकर इसे बंद किया जा सकता था, उसी तरह बाहर से इसे खोला भी जा
सकता था । लेकिन यह हिक़मत बस हम
लोगों को ही आती थी और इस तरह दरवाज़ा खोलना हर किसी के बस की बात भी नहीं थी सो
आनेवाले बाहर लगी लोहे की कड़ी जोर से बजाते थे । भंडारा के पुराने घरों में लोहे या टीन के इस तरह के
दरवाज़े आज भी मौज़ूद हैं और अपनी धातु,
अपने घनत्व, अपनी मजबूती और अपने आदिम होने के अहम के साथ अपनी विशिष्ट आवाज़ में
अपनी उपस्थिति दर्शाते हुए हुए आधुनिक सदी के कानों में अपनी चीख़ दर्ज कर रहे हैं ৷
शरद कोकास
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