1 अक्तूबर 2021

16. हरे प्याज़ के बेसन की सोंधी महक


पहाड़ों से निकलने वाली नदियाँ उबड़ खाबड़ चट्टानी मार्गों से बहते हुए अपना रास्ता बनाती हैं लेकिन मैदानी क्षेत्रों से निकलने वाली नदियों के लिए रास्ता सुगम होता है शहरी सभ्यता की सरिता का उद्गम भी किसी न किसी ग्रामीण सभ्यता से ही होता है लेकिन वह सरल रास्तों से बहती हुई दिखाई देते हुए भी उतने सरल मार्ग से नहीं बहती शहर की भाषा, संस्कृति, परम्परा और रीति-रिवाज़ों में नित नई चीजों का समावेश होता रहता है लेकिन वह भी अपनी जड़ों से पूर्णरूपेण मुक्त भी नहीं होता

उन दिनों भंडारा शहर की नई सडकों पर बनने वाले पक्के मकानों में धीरे धीरे ड्राइंग रूम, बेड रूम, किचन, बाथ रूम,स्टडी रूम,टैरेस,बालकनी जैसे शब्दों की आवाजाही शुरू हो गई थी लेकिन गली कूचों के पुराने घरों में  दालान, छपरी बरामदा, चौका, रसोई, नहानी,छत, गच्ची,माड़ी जैसे ठेठ देशज शब्द ही राज कर रहे थे शहर में लोग गाय भी पालते थे जिसे गाय का गोठा कहते थे जो गौस्थान का अपभ्रंश था उसके लिए अंग्रेजी शब्द किसी को पता नहीं था

देशबंधु वार्ड स्थित हमारे इस मकान के आंगन से लगा हुआ एक खुला बरामदा या दालान था जिसे हम लोग छपरी कहते थे । वही हम लोगों का बिना दरवाज़े का ड्राइंग रूम था । बांस और मिट्टी से बनी इसकी छत  काले रंग के बहुत खुबसूरत नक्काशीदार लकड़ी के खम्भों पर टिका हुई थी उन दिनों तस्वीरों को फ्रेम कराकर दीवार में लगाने का चलन था सो बाबूजी ने छपरी की दीवारों को इस तरह सजा रखा था छपरी के बाद एक बड़ा कमरा था जो हम लोगों का बेड रूम या लिविंग रूम था छपरी का फर्श काले पत्थर का बना था लेकिन बेड रूम और बाद के कमरों का फर्श मिट्टी का था जिसे माँ प्रत्येक सप्ताह गोबर से लीपती थी

बाबूजी को गोबर की गंध से कोई आपत्ति नहीं थी लेकिन अपनी वैज्ञानिक समझ के अनुसार वे गोबर के उस घोल में थोड़ा सा फिनाइल मिला देते थे शयन कक्ष के बाद स्टोर रूम की तरह का एक छोटा कमरा और था उसके बाद चौका या रसोई थी जहाँ का गौरव साइड में सिगड़ी वाला मिटटी का एक चूल्हा था । सामने की छपरी से पीछे चौके तक सारे कमरे ट्रेन के डिब्बे के कूपों की भांति एक सीध में थे ।

चौका खुला हुआ था अर्थात उसके और आंगन के बीच कोई दरवाज़ा नहीं था सो रात के खाने के बाद सारे बर्तन स्टोर रूम में रखकर दरवाज़े  में साँकल लगा दी जाती थी और उसमें एक लम्बी सी संसी अटका दी जाती थी ताकि बर्तन अपने शरीर से आती दाल सब्जी आदि की गंध से घबराकर भाग न जाएँ ।  इस स्टोर रूम में जाली वाला बड़ा सा एक संदूक हुआ करता था जिसमें बिल्ली से बचाने के लिए दूध, बचा हुआ खाना इत्यादि सामान रख दिया जाता था, यह पेटी हमारे लिये फ्रिज की तरह ही थी । दूध को दो बार गरम किया जाता था ताकि वह गुस्से से फटे नहीं पीतल का एक स्टोव भी इसी रूम में रखा हुआ था जिसमे मिट्टी का तेल उपयोग में लाया जाता था मिट्टी के चूल्हे की तुलना में स्टोव का ग्रेड कुछ अधिक था इसलिए गैस का चूल्हा आने के बाद भी वह इसी स्टोर रूम में रहता आया

मैं वात्सल्य और सुरक्षा की चादर ओढ़कर अक्सर इसी पेटी या संदूक पर पालथी मारकर बैठ जाता और माँ बाबूजी को स्टोव पर चाय अथवा सब्जी बनाते हुए देखा करता था । जलते हुए मिट्टी के तेल की गंध मुझे अच्छी लगती थी उन दिनों गंध के मामले में हम लोग इतने एक्सपर्ट हो गए थे कि चाय सूंघकर ही बता देते थे कि वह लकड़ी के चूल्हे पर बनी है, पत्थर के कोयले पर या केरोसिन वाले स्टोव पर माँ के अवकाश के दिनों मे बाबूजी इसी स्टोव  पर खाना बनाते थे । पीतल का वह स्टोव उच्च शिक्षा हेतु मेरे घर से बाहर निकलने तक मेरे साथ था

माँ को लकड़ी के चूल्हे पर खाना बनाना पसंद था लेकिन कभी कभी चूल्हे की बजाय स्टोव पर ही खाना बनाती थी  । माँ को चूल्हे पर खाना बनाते हुए देखना मुझे बहुत अच्छा लगता था उनके पास हामिद की दादी वाला एक चिमटा भी था और एक फुंकनी भी जिससे फूँककर वे मृत होते हुए अंगारों में जान डाल देती थीं चूल्हे पर रखे तवे पर रोटी सेंकने के बाद वे चिमटे से उसे पकड़कर चूल्हे में जलती लकड़ियों के पास अंगारों पर रख देतीं और रोटी ख़ुशी से फूलकर कुप्पा हो जाती साइड की सिगड़ी पर कांसे की एक बटलोई रखी होती जिस तक धीरे धीरे पहुँचती आँच में खदबद खदबद के धीमे सुरों में पकती दाल अपने प्रोटीन होने के दर्प में देर तक गलती रहती, जिससे उठता झाग भाफ़ के साथ आन्दोलन करता हुआ धीरे धीरे बाहर आ जाता और बर्फ की तरह ढक्कन के किनारे जम जाता आज लाइट पेट्रोलियम गैस,इन्डक्शन, प्रेशर कुकर और माइक्रोवेव के ज़माने में यह सब सुख लुप्तप्राय हैं

हमारे घर में स्वाद और सोंधेपन का यह उत्सव अक्सर मनाया जाता कभी कभी माँ स्टोव या चूल्हे पर लोहे की कढाई में सरसों के तेल में, लहसुन,अमचूर व गुड़ डालकर हरे प्याज़ का सोंधे स्वाद वाला भुना हुआ बेसन बनाती थी बेसन बनते हुए देखना मेरा प्रिय शगल था देख देख कर ही मैं बेसन बनाना सीख गया आज भी मैं उसी तरीके से सोंधे स्वाद वाला बेसन बनाता हूँ और माँ को याद करता हूँ । चालीस वाट के बल्ब की पीली रौशनी में पकते हुए हरे प्याज़ के बेसन का वह चित्र और भुनते बेसन की गंध आज भी मेरे अवचेतन के एल्बम में विद्यमान है माँ को याद करते हुए अक्सर मैं निदा फ़ाज़ली साहब की इन पंक्तियों को याद करता हूँ ...

 बेसन की सोंधी रोटी पर, खट्टी चटनी जैसी माँ

याद आता है चौका-बासन,चिमटा फुंकनी जैसी माँ 

हमारे इस घर में चौके  के बाद एक छोटा सा आंगन था जिसके अंत में गड्ढे जैसी दिखाई देने वाली एक बड़ी सी पानी की टंकी थी जिसके बहुत नीचे नगरपालिका का नल लगा था । पाइपलाइन पुरानी हो जाने के कारण नल से पानी आना बन्द हो गया था इसलिये एक गढ्ढा खोदकर नल का लेवल नीचे कर दिया गया था । गढ्ढे को सीमेंट से भूमिगत टैंक का आकार दे दिया गया था कुएँ की तरह दिखने वाली इस टंकी में रस्सी से बाल्टी बान्धकर लटका दी जाती थी और पीने का पानी भर लिया जाता था । भंडारा में अधिकतर सरकारी नल इसी स्थापत्य में स्थापित थे

नल के पास साइड में सीमेंट की एक बड़ी टंकी और थी जिसका पानी निस्तार के काम आता था मटकों व पीतल की गुण्डीयों  में पीने का पानी भर जाने के बाद रोने बिसुरने के लिए नल को बहता हुआ छोड़ दिया जाता था फिर जब उस निचली टंकी में काफी पानी इकठ्ठा हो जाता और वह कुएँ की तरह दिखाई देने लगती उसमे रस्सी से बंधी बाल्टी डालकर वह पानी ऊपर की बड़ी टंकी में भर दिया जाता यह काम बाबूजी ही करते थे एक तरह से यह बाबूजी की एक्सरसाइज भी थी

इस बड़ी टंकी पर मकान मालकिन का आधिपत्य था लेकिन वे अक्सर खेती बाड़ी के काम से अपने गाँव में रहा करती थीं इसलिए उसका आनंद हम लोग ही उठाते थे कभी कभी माँ मेरे सारे कपडे उतारकर मुझे इस टंकी में छोड़ देती और मैं मछली की तरह इसमें तैरने की कोशिश करता इस में जमने वाली काई की  माह में एक बार सफाई करना ज़रूरी था । आज शावर के नीचे नहाने वाले और आर ओ से पानी पीने वालों के लिए यह जानना मुश्किल होगा कि उन दिनों पानी कितनी मुश्किल से प्राप्त होता था

 शरद कोकास 


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