शौचालय और स्नानघर यह शहरी सभ्यता के अंतर्गत आते हैं | इससे पहले नहाने के लिए गाँव में तालाब हुआ करते थे और शौच हेतु लोग दिशा मैदान जाते थे | मराठी में आज भी शौच हेतु ' परसा कड़े ' यह शब्द प्रचलित है जिसका अर्थ होता है खेत की ओर | यद्यपि यह स्थिति पहले नहीं थी सिन्धु सभ्यता में मोहनजोदाड़ो में उत्खनन में एक विशाल स्नानागार निकला है ,इसका अर्थ यह है कि वहाँ सार्वजनिक स्नान की पद्धति थी, वैसे ही घरों में निजी शौचालय भी थे | लेकिन सिन्धु सभ्यता के पतन के बाद यहाँ पुनः ग्रामीण संस्कृति आ गयी और शौच व स्नान हेतु निजी व्यवस्था का चलन समाप्त हो गया |
********* ********* ***********
********* ********* ***********
फिर चल देगी पनिहारिन पनघट पर
टुकड़े - टुकड़े जोड़कर बनाया मृद्भाण्ड उठाकर
/गीले वस्त्रों में निकल आएगी
मोहनजोदड़ो के स्नानागार से
कोई सद्यप्रसूता नहा कर
टुकड़े - टुकड़े जोड़कर बनाया मृद्भाण्ड उठाकर
/गीले वस्त्रों में निकल आएगी
मोहनजोदड़ो के स्नानागार से
कोई सद्यप्रसूता नहा कर
अपनी लम्बी कविता ‘पुरातत्ववेत्ता’ की इन पंक्तियों को लिखते हुए मेरे मन में जहाँ
मोहनजोदड़ो के उसी विशाल स्नानागार का चित्र था वहीं कहीं अवचेतन में भंडारा के अपने
उस पुराने मकान के पीछे के आँगन की चारदीवारी से घिरी बिना छत की वह छोटी सी जगह भी थी जिसे हम ‘नहानी’ कहते थे |
उसके जाने के बाद बाबूजी दो बाल्टी पानी डालकर शौचालय साफ करते थे और फिनाइल छिड़कते थे ৷ वे सर पर मैला ढोने की इस प्रथा के घोर विरोधी थे । वे बार बार कहते थे कि आज़ाद भारत में यह बात कितनी शर्मनाक है कि एक मनुष्य गन्दगी फैलाता है और दूसरा मनुष्य उस गन्दगी को साफ करता है । वे हमेशा कहते, यहाँ जब तक जाति प्रथा मौज़ूद है , ऊँच नीच, छुआ छूत और यह वर्ग भेद मौजूद है तब तक हम सही मायनों में आज़ाद ही नहीं हैं । आज भी सीवर साफ़ करने वाले और नाली साफ करने वाले मेहनत कशों को हम इसी नज़र से देखते हैं .
यह स्नानागार जैसा स्नानागार तो बिलकुल भी नहीं था । बैठने के लिए सीमेंट का एक पत्थर और सीमेंट का उखड़ा
हुआ फर्श । कपड़े टांगने के लिए दो
दीवारों के बीच बंधा लोहे का एक तार ৷ नहाने के लिए हम
लोग बाल्टियों में पानी भरकर रख लेते थे ৷ यद्यपि सीमेंट की एक
छोटी टंकी यहाँ भी थी लेकिन उसमे बाबूजी के कपूरी पान के हरे पत्ते डूबे रहते थे
ताकि उनका ताजापन बरकरार रहे ৷
छत के अलावा इस नहानी में कोई दरवाज़ा भी नहीं था ৷ दरवाज़े की जगह दीवारों पर कील गाड़कर और उस पर पुरानी
साड़ी का एक पर्दा टांगकर दरवाज़े का काम लिया जाता था । अगर पर्दा गिरा है और पानी
की आवाज़ आ रही है इसका मतलब कोई बाथरूम में नहा रहा है और पर्दा साइड में दीवार की
कील में अटका हुआ है मतलब बाथरूम खाली है । यह हमारी संकेत
भाषा थी ৷ मुझे व बाबूजी को तो वैसे
भी परदे की ज़रूरत नहीं थी बस माँ उसका उपयोग करती थी ।
बाथरूम में
जाने के बाद माँ एक बार ऊपर की ओर देख लेती ৷ ग़नीमत की आसपास
ऊँची इमारतें नहीं थीं इसलिए आकाश के अलावा वहाँ कोई और ताकाझांकी नहीं कर सकता था
৷ लगी हुई एक ईमारत अवश्य थी
लेकिन उसकी छत कुछ दूर थी ৷ माँ अपने मायके में
सुविधाओं में पली थी इसलिए कभी कभार नहाकर आने के बाद दबे स्वरों में इस असुविधा
का ज़िक्र करते हुए अपना असंतोष भी व्यक्त करती ही थी ৷
ऐसे स्नानागार के विषय में
सोचते हुए मुझे जन कवि जीवन यदु की कविता की एक पंक्ति याद आती है जिसमे लोगों की
निगाहों से बचते हुए खुले में नहाती हुई एक स्त्री कहती है ‘काश उसका बस चलता तो
वह चावल के बदले एक स्नानागार ख़रीद लेती ৷’ बचपन के उन दिनों में यह बात मुझे सामान्य लगती थी
मुझे तो यह भी नहीं पता था कि स्नानघर तो
दूर इस देश में बहुसंख्य लोगों के लिए शौचालय भी उपलब्ध नहीं हैं ৷
भंडारा वाले इस घर में नहानी के बाद सबसे पीछे शौचालय
था । यह शौचालय भी मोहल्ले के तमाम शौचालयों की तरह कच्चा शौचालय ही था ৷ उन दिनों शहर में शत प्रतिशत प्रतिशत मकानों में कच्चे शौचालय ही
हुआ करते थे जिनके आउटलेट सड़क की ओर बने थे जिन पर टीन के पतरे के ढक्कन लगे होते
थे । कई आउट लेट पर ढक्कन नहीं भी होते थे इसलिए ज़रूरी था कि सड़क पर चलते हुए
निगाह सिर्फ सड़क पर रखी जाए वर्ना घर पहुँचकर खाना पीना मुश्किल हो जाता था ।
शौचालयों को
साफ करने की ज़िम्मेदारी नगर पालिका के सफाई कर्मचारियों की थी । उन्हें उनके श्रम
का उचित मूल्य नहीं मिलता था इसलिए वे अक्सर हड़ताल किया करते थे ৷ हड़ताल के दिनों में शौचालय की सफाई का संकट किसी राष्ट्रीय संकट से
भी बड़ा दिखाई देता था । ऐसे समय अच्छे प्रतिष्ठित लोग भी लोटा लिये हुए किसी
उपयुक्त स्थान की तलाश में भटकते दिखाई दे जाते थे । वैसे आम जनता तो खेतों का
उपयोग सदियों से करती आ रही थी ৷ इसका प्रमाण है कि मराठी में शौच हेतु जाने के लिए ‘परसा
कड़े ‘ शब्द का प्रयोग किया जाता है जिसका
अर्थ होता है ‘खेत की ओर’ ৷ पक्के मकानों में रहने वाले लोग आज भी आदतन इसी शब्द
का उपयोग करते हैं ৷
हम लोग इस
मायने में सुखी थे कि हम लोगों के घर के निकट बहुत सारे खेत थे ৷ आपातकाल में इन्ही का उपयोग किया जाता था । मोहल्ले
की महिलाएँ सुबह सुबह ,मुँह अँधेरे ही निवृत हो आती थीं ৷ पुरुषों के
लिए तो खेत के अलावा रेल पटरी भी पास ही थी ৷ बाद में इन खेतों की ज़मीन पर सहकार नगर कॉलोनी बस गई
लेकिन तब तक अधिकांश मकानों में कच्चे शौचालय पक्के शौचालयों में परिवर्तित हो
चुके थे । हमारे इस मकान में उन्नीस सौ चौरासी तक कच्चा शौचालय ही था ।
वह सुबह लगभग दस बजे हमारे घर के पिछवाड़े बना शौचालय
का पिछला दरवाज़ा खोलती थी ৷ यह दरवाज़ा लकड़ी का
था ৷ दरवाज़ा खुलने की आहट मिलते
ही बाबूजी पानी की बाल्टी लेकर सजग हो जाते थे ৷ उसके पास एक टोकने में राख होती थी ৷ हालाँकि चूल्हे की राख हर घर में मिल जाती थी फिर भी अगर
उसके पास राख ख़तम हो जाती तो वह माँ को आवाज़ देती ... “ मास्तरीन बाई, राख दो ..”
माँ पीछे गली में निकलकर उसे राख देती साथ ही उसके हालचाल भी पूछ लेती ৷ वह टीन के एक टुकड़े से मैले पर राख डालती फिर उसे
दूसरी टोकरे में समेट लेती ৷ सबसे दुखद दृश्य
होता था उस टोकरे को सर पर लादकर एक घर से दूसरे घर ले जाते हुए उसे देखना । लोग
उसे देखकर नाक मुंह पर हाथ रख लेते और जुगुप्सा भाव से मुंह फेरकर दूर दूर से निकल
जाते ৷
वह लोगों की मुखमुद्रा
पर ध्यान दिए बिना निर्लिप्त भाव से अपना टोकना लिए अंत में चौक तक पहुँचती जहाँ उस
जैसी और भी महिलाएँ आ जातीं ৷ कुछ देर में एक
ट्रैक्टर आता जिसके पीछे एक टैंकर लगा होता ৷ उस पर खड़ा एक
कर्मचारी उन सभी महिलाओं के पास से उनके टोकने लेकर मैला उस टैंक में उंडेल देता,
फिर ट्रैक्टर शहर से बाहर कम्पोस्ट ग्राउंड की ओर रवाना हो जाता ৷ बाद में नगर पालिका द्वारा उन्हें दो पहियों वाली गाड़ियाँ
दी गईं थीं जिसमें दो बाल्टियाँ हुआ करती थीं । यद्यपि शौचालय के आउटलेट से गाड़ी
तक मैला उन्हें टोकरे में ही ढोना पड़ता था
৷
उसके जाने के बाद बाबूजी दो बाल्टी पानी डालकर शौचालय साफ करते थे और फिनाइल छिड़कते थे ৷ वे सर पर मैला ढोने की इस प्रथा के घोर विरोधी थे । वे बार बार कहते थे कि आज़ाद भारत में यह बात कितनी शर्मनाक है कि एक मनुष्य गन्दगी फैलाता है और दूसरा मनुष्य उस गन्दगी को साफ करता है । वे हमेशा कहते, यहाँ जब तक जाति प्रथा मौज़ूद है , ऊँच नीच, छुआ छूत और यह वर्ग भेद मौजूद है तब तक हम सही मायनों में आज़ाद ही नहीं हैं । आज भी सीवर साफ़ करने वाले और नाली साफ करने वाले मेहनत कशों को हम इसी नज़र से देखते हैं .
माँ जब पीछे का दरवाज़ा खोलकर उसे राख प्रदान करती तब
मैं भी माँ का पल्लू पकड़कर पिछली गली में आ जाता और सर पर मैले का टोकरा उठाये माँ
जैसी दिखाई देने वाली उस स्त्री को देखता ৷ वह दृश्य देखकर
मुझे बहुत खराब लगता था । मुझे बाबूजी की गंभीर बातें बिलकुल समझ में नहीं आती थीं
लेकिन उस स्त्री का दुःख और उसकी विवशता अच्छी तरह समझ में आती थी ৷ मैं यही सोचता कि उसकी जगह अगर मेरी माँ होती या मैं
उसका बेटा होता तो क्या होता ৷ कुछ समय बाद जब मैं
हिंदी प्राथमिक शाला में पढने गया तो मेरी मुलाकात ऐसे कुछ बच्चों से हुई जिनकी
माताएँ यही काम करती थीं ৷ मैंने उनसे दोस्ती कर ली ৷
शरद कोकास
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
आइये पड़ोस को अपना विश्व बनायें