बचपन के उन दिनों में अक्सर मेरे पाँव मुझसे अनुमति लिए बगैर शहर से बाहर किसी खँडहर की ओर मुड़ जाते थे ৷ मैं अपने अकेलेपन में अपने भीतर भटकता हुआ पाँवों से जाने कहाँ कहाँ भटकता था ৷ हलधरपुरी मोहल्ला जहाँ खत्म होता था उस अंतिम छोर पर मराठा काल में बनी पत्थर की कुछ छतरियाँ थीं ৷ संभवतः वे किसी छोटे मोटे मराठा सरदार या योद्धा के समाधि स्मारक रहे होंगे ৷ उस समय भी राजा महाराजाओं के स्मारक तो शहर के भीतर बनाये जाते थे लेकिन अन्य सरदारों को मृत्यु के बाद दूर दराज ही जगह मिलती थी ৷ आम जनता को यह सुविधा प्राप्त नहीं थी ৷ उनका जीना क्या और मरना क्या, उनकी स्मृति को तो कभी किताबों में भी जगह नहीं मिली ৷
उन छतरियों का वास्तुशिल्प देखने लायक था ৷ स्तंभों में पत्थर एक के ऊपर एक बहुत कुशलता के साथ जोड़े गए थे ৷ मैं उन पत्थरों को बहुत ध्यान से देखता था और उनमे उन्हें जोड़ने वाले कारीगर की उँगलियों का स्पर्श महसूस करता था ৷ उसके आसपास कुछ पुराने ढहे हुए मकान भी थे ৷ बरसात के दिनों में पुराने मकानों की ढही हुई मिट्टी की दीवारों पर उगी हुई काई से अजीब सी गंध आती ৷ वह गंध मुझे उस दीवार के इतिहास से आती हुई मालूम होती थी ৷
प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों को देखते हुए मेरे मन में विचार आता था कि जब सीमेंट की खोज नहीं हुई होगी तब इतनी मज़बूत इमारतें कैसे बनती होंगी ? बचपन में एक बार बाबूजी के साथ इलेक्शन ड्यूटी में भंडारा के पास के एक ऐतिहासिक कस्बे ‘पवनी’ जाना हुआ था ৷ वहाँ पांच छह सौ साल पहले का गोंड कालीन एक पुराना किला है जो देखने में अधूरा सा लगता है ৷ उसके बहुत सारे हिस्से अब शेष नहीं हैं ৷ मैंने देखा उसके भग्नावशेष आसपास ही बिखरे हुए थे ৷ एक जगह पत्थरों को जोड़ने वाला गारा अपने जमे हुए शिल्प में उपस्थित था ৷ ऐसा लगता था जैसे उस समय किले के किसी भाग का निर्माण कार्य चल रहा होगा, उसी समय दुश्मन का आक्रमण हुआ होगा या कोई और व्यवधान आ गया होगा और उन्हें सब कुछ वैसे ही छोड़कर जाना पड़ा होगा ৷
अपनी मजबूती में वह गारा पत्थर की तरह ही था ৷ वस्तुतः उन दिनों ईटों और पत्थरों को जोड़ने के लिए ऐसे ही विभिन्न प्रकार के गारे बनाये जाते थे जिनमे चूना पत्थर, लाल मिट्टी, चाक मिटटी, गोंद , बेल, का गूदा जैसी तमाम चीज़ें हुआ करती थीं ৷ फिर सन अठारह सौ चोवीस में इंग्लैंड में चूना पत्थर और मिट्टी से सीमेंट जैसी एक वस्तु का आविष्कार हुआ और सन अठारह सौ पचास में रेत,चूना पत्थर, चाक मिटटी जैसी वस्तुओं में उपस्थित कैल्शियम ऑक्साइड, अल्युमिनियम ऑक्साइड , सिलिकॉन ऑक्साइड जैसे तत्वों के माध्यम से सीमेंट बनने लगा ৷ आज के आधुनिक कंक्रीट के जंगल इसी सीमेंट की बदौलत पनप रहे हैं ৷ एक सच यह भी है कि आज चीन और भारत विश्व के सबसे बड़े सीमेंट निर्माता हैं ৷
शहरों की गगनचुम्बी सीमेंट कंक्रीट से बनी इमारतों को देखकर यह कल्पना करना भी मुश्किल है कि एक समय ऐसा था जब दीवारें केवल मिटटी की होती थीं या ईटों की जुड़ाई मिट्टी के गारे से की जाती थी ৷ उन्हें इतना चौड़ा बनाया जाता था कि वे आसानी से ढह ना सकें ৷ भंडारा के हमारे देशबंधु वार्ड के इस मकान में विशेष बात यह थी कि इस मकान की भीतरी बाहरी सभी दीवारें मिट्टी की थीं ৷ हम शर्म के कारण किसी से कहते नहीं थे कि हम मिट्टी के घर में रहते हैं लेकिन अवसर आने पर यह कहने से नहीं चूकते थे कि हमारे घर की दीवारें दो फीट मोटी हैं और इस वज़ह से गर्मी के दिनों में भी घर के भीतर ठंडक रहा करती है । हम भारतीयों की यही विशेषता है कि हम कभी कभी अपने अभावों को भी अपना सुख मान लेते हैं और अवसर आया तो औरों से बढ़ा चढ़ा कर अपने सुखों का बखान भी करते हैं৷
उस मकान की मिटटी की दीवारों में जगह जगह ताख या आले बने हुए थे जिनका उपयोग छोटा मोटा सामान, दीपक आदि रखने के लिए होता था । एक बार विपिन चाचा भंडारा आये ৷उन्होंने मजाक में पूछा “क्या तुम आले में रुमाल बिछाकर सो सकते हो ?” मैं बहुत देर तक सर खुजाता रहा और कहा “मैं क्या कोई नहीं सो सकता .. वो तो सिर्फ तुलसी बाबा के हनुमान जी कर सकते हैं .. सूक्ष्म रूप धरी सियही दिखावा ৷ “ विपिन चाचा हंसने लगे “ अरे भाई, सूक्ष्म रूप धर कर आले में सोने को कौन कह रहा है .. आले में रुमाल बिछाकर आप फर्श पर भी तो सो सकते हैं ।“
घर के सामने वाले आंगन से एक गली इन कमरों के समानांतर पीछे के आंगन तक जाती थी जिसकी बाहरी दीवारें बरसात के दिनों में पसीजती रहती थीं ৷ वहीं बगल के मकान वाले सहसराम के घर के पीछे की दीवार भी इसी गली में खुलती थी जो हर बरसात में थोड़ी थोड़ी ढह जाती थी ৷ इस दीवार पर बांस की एक सीढ़ी लटकी रहती थी ৷ कच्चे मकानों की मिट्टी की इन दीवारों की नियति यही थी कि इन्हें बारिश से बचाना होता था ৷ आज भी गाँवों में ऐसे दृश्य दिखाई देते हैं जहाँ घर के भीतर की दीवारें तो छप्पर होने के कारण बची रहती हैं लेकिन चहारदीवारी अक्सर बारिश में ढह जाती है ৷
एक दिन मुस्लिम लायब्रेरी के एक मुशायरे में संचालक ने शायर सिब्त अली सबा के एक शेर पढ़ा जिसका ज़िक्र मेरे मित्र नासिर अहमद सिकंदर अक्सर करते हैं .....
लोगों मेरे सेहन में रस्ते बना लिए ৷
आज भी सिर्फ ढही हुई दीवारें ही नहीं बल्कि ढहे हुए इरादों वाले ढहे हुए लोगों और उनकी विवशता का फ़ायदा उठाते समर्थ लोगों को देखकर मुझे यही शेर याद आता है ৷ वैसे भी मिटटी की दीवारें तो ग़रीब मज़लूमों के घर की हुआ करती हैं , पत्थरों के मजबूत आलीशान मकान तो केवल राजाओं, अमीरों, धन्ना सेठों, भगवानों और ख़ुदाओं को ही नसीब हैं ৷
हमारा यह मिट्टी का घरौंदा सिर्फ दीवारों में ही मिट्टी का नहीं था बल्कि बीच के दोनों कमरों की छत जो उपरी मंजिल का फर्श भी थी बांस और मिटटी की ही बनी थी और लकड़ी की दो मज़बूत मयालों पर टिकी हुई थी ৷ मकान मालकिन नानी जब उस फर्श पर चलतीं तो उनके चलने से नीचे बीच वाले दोनों कमरों में धम्म धम्म की आवाज़ आती थी ।
उन दिनों मुझे भूत-प्रेत की कहानियाँ पढ़ने का बहुत शौक था ৷ वैसे भी गाँवों में सर्दियों की रातों में गुदड़ी में दुबके हुए बच्चों को उनकी माँ, दादियाँ और नानियाँ तो परी और राजकुमार के किस्से सुनाती थीं लेकिन घर में कुछ बड़े भाई होते थे जो बदमाशी किया करते थे और छोटे भाई बहनों को भूत- प्रेत की झूठी कहानियाँ सुनकर डराया करते थे ৷ बैतूल में मेरे बड़े भाइयों और उनके दोस्तों ने इसी भूमिका का निर्वाह किया था ৷
नानी जब गाँव चली जाती थीं और ऊपर की मंज़िल पर कोई नहीं रहता था वह आवाज़ आनी बंद हो जाती थी ৷ एक दिन उनकी अनुपस्थिति में भी धम्म से आवाज़ आई ৷ मैंने पहले दिन तो वह आवाज़ सुन कर भी अनसुनी कर दी ৷ दूसरे दिन फिर वैसी ही आवाज़ आई ৷ मैं बुरी तरह डर गया था ৷ मुझे लगा नानी के जाने के बाद वहाँ भूत रहने आ गए हैं ৷ मैं कान लगाकर भूतों के चलने की आवाज़ सुनने की कोशिश करता लेकिन भूत होते तब ना आवाज़ आती । डर की इंतिहा हो जाने के बाद एक दिन मैंने माँ से कहा “ माँ, लगता है नानी ने भूत पाले हैं ৷” माँ ज़ोरों से हँसी.. “ अरे वह धप्प से बिल्ली के कूदने की आवाज़ हो सकती है ৷” फिर वे मुझे पीछे वाले आंगन में लेकर गई ৷ हमने देखा ऊपर की माड़ी की खुली खिड़की से एक काली बिल्ली निकलकर बाहर आ रही थी ৷ शायद चूहों की तलाश में वह वहाँ आ गई थी ৷
माँ ने कहा “देखो, कभी किसी चीज़ से डरना नहीं ৷ अगर डर लगे तो उसके करीब जाकर देखना, जैसे ही करीब जाओगे उसकी असलियत समझ में आ जाएगी और डर ख़तम हो जाएगा ৷ जो दूर से दिखाई देता है वह हमेशा सच नहीं होता ৷ उसके बाद भूत-प्रेत, बुरी आत्मा, चुड़ैल, दानव, राक्षस, लाश, मरघट , अँधेरा और हॉरर फिल्मों जैसी चीज़ों से मेरा डर ख़तम हो गया ৷ जिस चीज़ से मुझे डर लगता मैं उसके करीब जाकर उसकी वास्तविकता को जानने का प्रयास करता और आश्चर्य कि सच्चाई जानकर मेरा डर ख़त्म हो जाता ৷
पिछले दिनों मैंने मौत को भी इसी तरह क़रीब जाकर देखा ৷ और मैंने क्या ... हमने आपने सबने देखा है ৷ भय यद्यपि
हमारी जैविक इच्छाओं या विशेषताओं के अंतर्गत आता है लेकिन हमें सायास इस पर काबू
पाना होता है ৷ हम भले पूरी तरह काबू न कर पायें लेकिन कोशिश तो कर ही
सकते हैं ৷
शरद कोकास
जी नमस्ते ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल गुरुवार(१४-१०-२०२१) को
'समर्पण का गणित'(चर्चा अंक-४२१७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
रोचक आलेख
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर लेख कई जानकारियां और रोचकता युक्त।
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