4 अगस्त 2021

14.इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए


शिंगणापुरकर की माड़ी का वह जीना मैं कभी नहीं भूला था भंडारा छोड़ देने के बाद भी जब कभी भंडारा जाता उस माड़ी के सामने से निकलते हुए एक बार उस जीने की और निगाह ज़रूर डालता था बरसों बाद मुक्तिबोध के शहर राजनांदगांव जाना हुआ  वहाँ दिग्विजय महाविद्यालय के परिसर में मुक्तिबोध के निवास का वह चक्करदार जीना देखते हुए सहसा मुझे भंडारा की उन सीढ़ियों का स्मरण हो आया माँ की नर्म गोद में, उनींदी अवस्था में, उन्ही सीढ़ियों पर अवचेतन में स्मृति को दर्ज करने का पहला पाठ मैंने पढ़ा था


 बाबूजी के वे संघर्ष के दिन थे शहर दर शहर भटकते हुए , प्राइवेट परीक्षार्थी के तौर पर परीक्षाएँ पास करते हुए, बेहतर नौकरी की तलाश में वे भंडारा आ गए थे यही भंडारा शहर उनका अंतिम पड़ाव घोषित होने वाला था  बरसों बाद जब मैंने पिता की आँखों में झांककर उनका अतीत देखना चाहा तो मुझे ऐसा लगा जैसे उन दिनों वे मुक्तिबोध की इन पंक्तियों को जी रहे थे ..

                                                                           असफलता का धूल कचरा ओढ़े हूँ

इसलिए कि वह चक्करदार जीनों पर मिलती है

छल-छद्म धन की

किन्तु मैं सीधी सादी पटरी पर दौड़ा हूँ जीवन की

फिर भी मैं अपनी सार्थकता से खिन्न हूँ

विष से अप्रसन्न हूँ

इसलिए कि जो है उससे बेहतर चाहिए


बाबूजी फिर किराये के एक बेहतर मकान की तलाश में थे अपने जीवन की शुरुआत किराये के मकान से करने वाले लोग एक मकान के बाद दूसरा मकान बदलते हुए किराए के मकान में उपलब्ध जगह, किराये की राशि और मासिक आय इनके बीच समीकरण स्थापित करते हुए इसी तरह जीवन के अर्थशास्त्र का कठिन गणित सुलझाते हैं मेरे जन्म के पश्चात शिंगणापुरकर की माड़ी में बाबूजी बहुत कम समय रहे , शायद एक या डेढ़ साल उसके बाद हम लोग एक बेहतर मकान में शिफ्ट हो गये जो वहाँ से लगभग एक किलोमीटर दूरी पर देशबंधु वार्ड में स्थित था । उस मकान में शिफ़्ट करने का कोई चित्र मेरी स्मृति में नहीं है संभव है उन दिनों मैं माँ के साथ अपने ददिहाल बैतूल या ननिहाल झाँसी में रहा होऊँ   

 देशबंधु वार्ड स्थित इस मकान का किराया उस समय के हिसाब से दस या बारह रुपये मासिक था सबसे अच्छी बात यह थी कि यह मकान भूतल पर था और मुझ जैसे घुटने घुटने चलने वाले बच्चे के लिए यहाँ भरपूर मिट्टी उपलब्ध थी सामने आंगन, फिर छपरी या बरामदा फिर बीच का कमरा, उसके बाद एक छोटा सा स्टोर रूम फिर रसोई और पीछे आंगन, अंत में स्नानघर और शौचालय यह मकान बहुत अधिक सुविधाजनक तो नहीं था लेकिन बाबूजी इससे बेहतर मकान के लिए अधिक किराया देने की स्थिति में नहीं थे सो वे यहीं ठहर गए और इसी मकान में उन्होंने बीस साल से भी अधिक समय तक निवास किया । आगे चलकर किराये में वृद्धि के साथ इस मकान में भी कुछ सकारात्मक परिवर्तन हुए मेरे बचपन के एल्बम में इसी मकान के चित्र सबसे अधिक हैं


देशबंधु वार्ड जिसका पुराना नाम हलधरपुरी था एक काफी पुराना मोहल्ला था और वहाँ अधिकांश  निम्नवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय लोग रहा करते थे । फटे पुराने कपड़ों में लिपटे, आवारागर्दी करते हुए नंगे पांव गलियों में भटकने वाले बच्चे मोहल्ले के नाम का एक गाना गाते थे ...” हलदर पुरी गड़बड करी, एकाची बायको शम्भर घरी “ अर्थात हलधर पुरी में बहुत गड़बड़ है यहाँ एक की पत्नी सौ घरों में पाई जा सकती है । बचपन में मेरे कानों पर तो पहरा नहीं था लेकिन समझ पर बंदिशें अवश्य थीं गाली गलौज और बुरी बातें सुनकर भी न समझ पाने वाले बचपन के उन मासूम दिनों में मुझे इसका मतलब पता नहीं चला लेकिन जब पता चला तो उन बच्चों पर बहुत गुस्सा आया लेकिन तब तक मैं बड़ा हो चुका था और मुझसे उम्र में बड़े वे बच्चे भी काफी बड़े हो गए थे अब उनके पास कहने के लिए कुछ और अच्छी-बुरी बातें और करने के लिए कुछ और अच्छे-बुरे काम थे

 देशबंधु वार्ड स्थित इस मकान की मकान मालकिन थीं गं. भा. पार्वती बाई चव्हाण जो ऊपर की मंजिल में रहा करती थीं चेहरे से धीर गंभीर, कभी न मुस्कुराने वाली , नौगज़ी लुगड़ा पहनने वाली, हमेशा पूजा पाठ करने वाली, छुआ छूत मानने वाली,बात बात पर टोकने वाली लेकिन अनुशासन प्रिय पार्वती बाई की उम्र उस समय पचास के लगभग रही होगी उन्हें देखकर डर सा लगता था उनका रसोई घर व स्नानघर पीछे आँगन में ही था इसलिए वे अक्सर नीचे ही रहती थीं यह एक साझा आंगन था इसलिए उनकी निगाहों से बचना मुश्किल था उनके साथ उनकी एक नातिन भी रहा करती थी जिसका नाम अनुसूया था सब उसे अन्नू कहते थे अन्नू दीदी की तरह मैं भी उन्हें नानी कहने लगा लेकिन डर उनसे हमेशा लगता रहा नानी कुछ क्लास पढ़ी लिखी थीं और दस्तख़त करना जानती थीं वे अपने नाम के पहले  गं. भा . लिखती थीं । वे हमेशा काली साड़ी पहनती थीं ( चित्र में देखिये)

 

मुझे नहीं पता था कि गं.भा. का क्या अर्थ होता है और नाम से पूर्व में इसे लिखने का क्या औचित्य है कुछ बड़े होने के बाद एक दिन मैंने बाबूजी से इसका अर्थ पूछा तो उन्होंने बताया “ गं.भा. का अर्थ होता है गंगा भागीरथी । जिस तरह पुरुषों के लिए श्री, कन्याओं के लिए कुमारी,  विवाहित स्त्रियों के लिए श्रीमती या सौभाग्यवती या सौ. लिखा जाता है, उसी तरह गंगा भागीरथी या गं.भा. इस शब्द समुच्चय का प्रयोग विधवा स्त्रियों के नाम का उच्चारण करने से पहले किया जाता है ।“ मुझे अच्छा लगा कि समाज में विधवा स्त्रियों के लिए भले ही सम्मानजनक स्थान न हो लेकिन हमारी भाषा में तो है उस दिन मुझे भाषा के साथ साथ नानी पर भी गर्व हुआ

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