शिंगणापुरकर की माड़ी का वह जीना मैं कभी नहीं भूला था ৷ भंडारा छोड़ देने के बाद भी जब कभी भंडारा जाता उस माड़ी के सामने से निकलते हुए एक बार उस जीने की और निगाह ज़रूर डालता था ৷ बरसों बाद मुक्तिबोध के शहर राजनांदगांव जाना हुआ৷ वहाँ दिग्विजय महाविद्यालय के परिसर में मुक्तिबोध के निवास का वह चक्करदार जीना देखते हुए सहसा मुझे भंडारा की उन सीढ़ियों का स्मरण हो आया ৷ माँ की नर्म गोद में, उनींदी अवस्था में, उन्ही सीढ़ियों पर अवचेतन में स्मृति को दर्ज करने का पहला पाठ मैंने पढ़ा था৷
बाबूजी के वे संघर्ष के दिन थे ৷ शहर दर शहर भटकते हुए , प्राइवेट परीक्षार्थी के तौर पर परीक्षाएँ पास करते हुए, बेहतर नौकरी की तलाश में वे भंडारा आ गए थे ৷ यही भंडारा शहर उनका अंतिम पड़ाव घोषित होने वाला था ৷ बरसों बाद जब मैंने पिता की आँखों में झांककर उनका अतीत देखना चाहा तो मुझे ऐसा लगा जैसे उन दिनों वे मुक्तिबोध की इन पंक्तियों को जी रहे थे ..
इसलिए कि वह
चक्करदार जीनों पर मिलती है
छल-छद्म धन की
किन्तु मैं
सीधी सादी पटरी पर दौड़ा हूँ जीवन की
फिर भी मैं
अपनी सार्थकता से खिन्न हूँ
विष से
अप्रसन्न हूँ
इसलिए कि जो है
उससे बेहतर चाहिए
बाबूजी फिर किराये के एक बेहतर मकान की तलाश में थे ৷ अपने जीवन की शुरुआत किराये के मकान से करने वाले लोग एक मकान के बाद दूसरा मकान बदलते हुए किराए के मकान में उपलब्ध जगह, किराये की राशि और मासिक आय इनके बीच समीकरण स्थापित करते हुए इसी तरह जीवन के अर्थशास्त्र का कठिन गणित सुलझाते हैं৷ मेरे जन्म के पश्चात शिंगणापुरकर की माड़ी में बाबूजी बहुत कम समय रहे , शायद एक या डेढ़ साल ৷ उसके बाद हम लोग एक बेहतर मकान में शिफ्ट हो गये जो वहाँ से लगभग एक किलोमीटर दूरी पर देशबंधु वार्ड में स्थित था । उस मकान में शिफ़्ट करने का कोई चित्र मेरी स्मृति में नहीं है ৷ संभव है उन दिनों मैं माँ के साथ अपने ददिहाल बैतूल या ननिहाल झाँसी में रहा होऊँ ৷
देशबंधु वार्ड जिसका पुराना नाम हलधरपुरी था एक काफी पुराना मोहल्ला था और वहाँ अधिकांश निम्नवर्गीय और निम्न मध्यवर्गीय लोग रहा करते थे । फटे पुराने कपड़ों में लिपटे, आवारागर्दी करते हुए नंगे पांव गलियों में भटकने वाले बच्चे मोहल्ले के नाम का एक गाना गाते थे ...” हलदर पुरी गड़बड करी, एकाची बायको शम्भर घरी “ अर्थात हलधर पुरी में बहुत गड़बड़ है यहाँ एक की पत्नी सौ घरों में पाई जा सकती है । बचपन में मेरे कानों पर तो पहरा नहीं था लेकिन समझ पर बंदिशें अवश्य थीं ৷ गाली गलौज और बुरी बातें सुनकर भी न समझ पाने वाले बचपन के उन मासूम दिनों में मुझे इसका मतलब पता नहीं चला लेकिन जब पता चला तो उन बच्चों पर बहुत गुस्सा आया ৷ लेकिन तब तक मैं बड़ा हो चुका था और मुझसे उम्र में बड़े वे बच्चे भी काफी बड़े हो गए थे ৷ अब उनके पास कहने के लिए कुछ और अच्छी-बुरी बातें और करने के लिए कुछ और अच्छे-बुरे काम थे ৷
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