8 सितंबर 2010

पूरे देश से अलग होती है यहाँ जन्माष्टमी

भंडारा महाराष्ट्र की जन्माष्टमी यानि “ कान्होबा “

            इधर लगातार कई दिनों से बारिश हो रही है और मन बार बार भटक कर अतीत में जा रहा है । जेहन में उभर रहे हैं तीज-त्योहारों के वे चित्र जो बचपन में देखे थे शायद इसलिये कि वे स्थायी स्मृति में हैं । मेरा बचपन भन्डारा में बीता । यह जिला मध्यप्रदेश ( अब छत्तीसगढ़ ) और महाराष्ट्र की सीमा पर है । सीमा पर जो क्षेत्र होते हैं उनकी एक अलग तरह की संस्कृति होती है और इसे बहुत सूक्ष्म अवलोकन द्वारा ही जाना जा सकता है । अभी अभी कथाकार सतीश जायसवाल जी से मेरी बात हुई और हमने यह तय किया कि महाराष्ट्र और छत्तीसगढ़ की सीमा पर बसे गाँवों का एक दौरा किया जाये और इस मिश्रित संस्कृति का अध्ययन किया जाये । वहाँ के लोगों से मिला जाये , छतीसगढ़ी और मराठी के बीच संबंधों की तलाश की जाए । इस मिश्र संस्कृति की कुछ बातें मुझे बचपन से ही बहुत आकर्षित करती हैं  जैसे छतीसगढ़ी और मराठी के बहुत सारे शब्दों का एक जैसा होना । जैसे  “ मुझे ” के लिए छत्तीसगढ़ी में “ मोला “ शब्द है और मराठी में “ मला “ । तुझे के लिये छत्तीसगढ़ी में तोला और मराठी में मला , आदि आदि ।
            खैर आज भाषाविज्ञान पर बात करने की मेरी बिलकुल इच्छा नहीं है आज तो मेरा मन बचपन की गलियों में भटक रहा है और सर पर वासुदेव की तरह टोकरी में लदे हुई कृष्ण की बालरूप की प्रतिमाएँ मुझे दिख रही हैं । आप कहेंगे कि जन्माष्टमी तो हो गई  अब इसे लिखने से क्या फ़ायदा । मैं यह बतादूं कि महाराष्ट्र में जन्माष्टमी एक दिन में नहीं होती वहाँ यह दो- तीन दिन तक मनाई जाती है । स्थानीय कुम्हार कृष्ण के बालरूप की मूर्तियाँ तैयार करते हैं और जन्माष्टमी के दिन उनकी स्थापना होती है । हम लोग उत्तर प्रदेश व मध्यप्रदेश मूल के थे इसलिये हमारे घर में यह स्थापना नहीं होती थी लेकिन आसपास के घरों में यह पर्व इसी तरह सम्पन्न होता था हम लोग पड़ोस के किसी घर में जिस स्थान पर कृष्ण की मूर्ति की स्थापना करते थे उसे आकर्षक तरीके से सजाते थे  , छीन्द के पत्ते तोड़ कर लाते थे और उसपर सदाफुली या हरसिंगार के फूलों से सजावट करते थे । कृष्ण की मूर्ति के ठीक ऊपर फुलौरा बान्धा जाता था और इस के काँटों में विभिन्न पकवान लटकाये जाते थे जिनमें करन्जी ( गुझिया ) , अनरसा , बड़ा , और फलों में केले ,सेब आदि होते थे । हम लोगों के लिये यह एक शो रूम की तरह  होता था । फुलौरे में लटके पकवान देखकर ही हम समझ जाते थे कि किस घर में क्या पकवान बने हैं । अगले एक सप्ताह के लिये नाश्ते का मीनू तय हो जाता था
            फिर रात में बारह बजे कृष्ण का जन्मोत्सव पारम्परिक तरीके से मनाया जाता था । अगले दिन शाम तक एक दो बार पूजा होती थी उसके पश्चात स्थानीय खामतलाव में मूर्ति का विसर्जन कर दिया जाता था । आप कल्पना कर सकते हैं उस दृश्य की जिसमे मोहल्ले के लोग सर पर टोकरी या पटे पर बालकृष्ण की मूर्ति रखे एक लाइन से निकल रहे हों । हम लोग इस दृश्य का आनन्द लेते थे और तालाब पर तो जैसे मेला ही लग जाता था । अब मूर्ति रखने का चलन कुछ कम होता जा रहा है । छोटी बहन सीमा जिसकी ससुराल भंडारा में ही है और जिसके यहाँ बरसों से प्रतिमा की स्थापना का प्रचलन था उसने अपनी सासू माँ को इस बात के लिये राजी कर लिया कि मूर्तियों को तालाब में डुबाना पर्यावरण की दृष्टि से उचित नहीं है इसलिये बेहतर होगा कि हम लोग घर में रखी कृष्ण  की पीतल की मूर्ति की ही पूजा करें । इसी तरह पत्ते , फूल और अन्य पूजन सामग्री भी तालाब या नदी में न फेंके ।
            इसके बाद “ कान्होबा ” पर्व की समाप्ति पर होती है दही हन्डी या दही लूट के साथ जो कृष्ण के बचपन की शरारतों का प्रतीक है । ज़ाहिर है इसे भी उसी तरह धूमधाम और उल्लास के साथ सम्पन्न किया जाता है । टोलियाँ निकलती हैं और अपना कौशल दिखाती हैं । अब धीरे धीरे यह एक तरह की प्रतियोगिता बन चुकी है, हन्डी के साथ विभिन्न विज्ञापन भी दिखाई देते हैं  और यह बाज़ार द्वारा बाकायदा स्पॉन्सर भी की जाने लगी है आईये पड़ोस को अपना विश्व बनायें
(चित्र में कृष्ण के मेकअप मे मेरा भतीजा पार्थ , अन्य चित्र गूगल से साभार )

13 टिप्‍पणियां:

  1. Aapki janmshtami ne mujhe mere bachpan ki Ram navmi yaad dila dee jab shahar me sadkon pe 9 din mela lagta aur mai peetal ke chhalle aur kaanch kee chudiyan ghar( jo gaanv me tha) le aati..meri dadi kee maut ke baad wo chhalle aur chudiyan fink gayin.

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  2. तैरा लाये फिर एक बार बचपन की तलैया में.

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  3. कृष्ण की मूर्ति के ठीक ऊपर फुलौरा बान्धा जाता था और इस के काँटों में विभिन्न पकवान लटकाये जाते थे जिनमें करन्जी ( गुझिया ) , अनरसा , बड़ा , और फलों में केले ,सेब आदि होते थे । हम लोगों के लिये यह एक शो रूम की तरह होता था । फुलौरे में लटके पकवान देखकर ही हम समझ जाते थे कि किस घर में क्या पकवान बने हैं । अगले एक सप्ताह के लिये नाश्ते का मीनू तय हो .
    .ये तो बड़ी ही दिलचस्प बात बताई आपने ...बहुत रोचक प्रस्तुति.

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  4. क्या बात है भाई साहब क्या जानकारी दी है आपने. लेकिन उस से पहले मैं आपकी बहन सीमा दीदी को इस बात के लिए बधाई देना चाहूँगा कि देखा जाए तो उन्होंने एक जंग जीती है, बुजुर्गो को इस बात के लिए राजी करना जिसके लिए उन्होंने किया, वाकई एक जंग ही है मेरी नज़र में तो . बधाई उन्हें .

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  5. चित्रमय विस्तृत जानकारी के लिए हार्दिक शुक्रिया.
    चन्द्र मोहन गुप्त

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  6. बढ़िया जानकारी दी आपने..... आभार !

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  7. बहुत अच्छी जानकारी है। धन्यवाद।

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  8. यह जानकारी तो मेरे लिए बड़ी लाभप्रद है....इसे अपने मराठी
    मित्रों को सुनाउंगी तो उन्हें आश्चर्यमिश्रित ख़ुशी होगी कि मुझे इतना सब कैसे मालूमजैसी ही है.?...
    वाकई बहुत अलग ढंग से जन्माष्टमी मनाई जाती है,यहाँ,....पर मुंबई में इसका चलन अब कम हो गया है...हाँ दही-हांडी का बहुत शोर रहता है पर अब इसका भी व्यवसायीकरण हो गया है. बाकायदा मंच बनता है...नेतागण भाषण देते हैं....शोर शराबे वाला कर्णभेदी संगीत बजता है..देर तक नाच-गाने होते हैं तब जाकर कहीं मटकी फोड़ी जाती है.

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  9. बेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !

    आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।

    आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें

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आइये पड़ोस को अपना विश्व बनायें