आज पोला है । बैलों का यह त्योहार श्रावण माह की पिथौरी अमावस्या को मनाया जाता है । महाराष्ट्र में तो बहुत ही धूमधाम से मनाया जाता है । दर असल यह मनुष्यों का नहीं बैलों का त्योहार है । उन बैलों का जो साल भर अपने कन्धे पर जुआ लादकर खेत में हल चलाते हैं, निन्दाई ,गुड़ाई, गन्ने की घानी, उड़ावनी ऐसा कौनसा काम है जो बगैर बैलों के होता हो । इसलिये इस दिन उन्हे सम्मान दिया जाता है । आज के दिन बैलों को सजाया जाता है, उन्हे पकवान खिलाये जाते है,और उनकी पूजा की जाती है ।
महाराष्ट्र के जन जीवन में यह पर्व इतना महत्व पूर्ण है कि स्कूल में पोला पर निबन्ध कोर्स में रहता है । बच्चों के लिये तो यह पर्व बहुत सारे मज़े लेकर आता है । मुख्य पर्व के अगले दिन बच्चे अपने नन्हे नन्हे लकड़ी के या मिट्टी के बैल लेकर निकलते हैं और घर घर जाते है । ज़ाहिर है मिठाई के साथ साथ जेबखर्च भी मिल जाता है । मैं जब छोटा था तो भंडारा में अपने मोहल्ले में अपने मित्रों के साथ अपना लकड़ी का बैल लेकर निकलता था । सबसे पहले हम लोग एक जगह एक तोरण के नीचे इकठ्ठे होते थे । फिर उस मोहल्ले की नगरपालिका की पार्षद या सबसे बुज़ुर्ग महिला बैलों की पूजा करती थी । फिर हम लोग सबसे पहले अपने घर जाते जहाँ माँ उस लकड़ी के बैल की पूजा करती और मिठाई देती यह बाज़ार की मिठाई होती थी क्योंकि घर की बनी मिठाई और पूरन पोली तो हम दिन भर से खा रहे होते थे । फिर उसके बाद अपने बैल को चलाकर दोस्तो के यहाँ जाते ,चलाकर मतलब चक्कों पर चलाकर और दोस्तो के यहाँ भी यही होता । इस तरह मज़ा लिया जाता इस त्योहार का ।
पिछले दिनों भंडारा गया था तो पुराने सामान में अपना वह लकड़ी का बैल मिल गया । हाँलाकि उसके दो चक्के गायब हैं । यह बैल मुझे राजनान्दगाँव की गुड़ाखू लाइन में रहने वाले पिताजी के फूफाजी गजाधर प्रसाद शर्मा जी ने दिया था । अब न पिता हैं न दादा गजाधर और न वह मस्ती भरा बचपन लेकिन वह बैल मौज़ूद है | जी हाँ व्यस्तता के इस जीवन में हम लोग भी तो खुद बैल बन गये हैं । बहरहाल अपने छोटे भाई शेखर के पुत्र पार्थ के हाथों में लकड़ी का यह बैल देखकर मेरा मन कर रहा है कि फिर से बच्चा बन जाऊँ और बैल के गले में रस्सी बाँधकर अपनी गली में निकल पड़ूँ यह कहते हुए कि लो भई बैल आ गया “बोझारा” दो ।
आपका- शरद कोकास
आईये पड़ोस को अपना विश्व बनायें
श्रमशील परंपराओं से जुडे इस त्यौहार की जानकारी ने समृद्ध किया।
जवाब देंहटाएंयह वाकई में अतीत की गर्वीली राहों से जोडती है।
बहुत अच्छी जानकारी दी है आपने .. कहां कहां हमारे पूर्वजों का ध्यान था .. जानवरों तक का सम्मान किया जाता था यहां .. पूजा होती थी उनकी .. कितनी सुंदर परंपरा थी .. अलग अलग क्षेत्र में अलग अलग रूपों में ऐसे त्यौहार हमारी अच्छी सभ्यता की ही तो गवाह है .. पर आज लालच में आकर हम कितने तुच्छ हो गए हैं .. कम से कम त्यौहार मनाने के दिन भी उसकी सार्थकता को याद कर लें .. और प्रकृति की रक्षा के लिए उसका अंशमात्र भी पालन करें .. तो कितनी समस्याएं दूर हो सकती हैं .. बचपन के दिन तो अब आने से रहे !!
जवाब देंहटाएंमें हम लोग भी तो खुद बैल बन गये हैं
जवाब देंहटाएंयह युग का सच है, और व्यवस्था के हाथों खिलौना भी।
bhut hi achhi aur gyaan bardhak jaan kaari di aap ne haamaare desh me alag alag bhaago me kaise kaise parv hai jinhe samajhne aur dekhne ka mouka hi nahi milta
जवाब देंहटाएंsaadar
praveen pathik
9971969084
Rochak jaankaari, Aabhar.
जवाब देंहटाएंवैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।
अच्छी जानकारी युक्त
जवाब देंहटाएंअच्छी जानकारी से युक्त
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर रचना....बहुत बहुत बधाई....
जवाब देंहटाएंसुखद अनुभव रहा
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