महाराष्ट्र प्रांत अपनी अंतिम सीमाओं को तय करते हुए
जहाँ पूर्व और उत्तर में मध्यप्रदेश की सीमाओं को छूता है वहीं बसा है ज़िला भंडारा
৷ भंडारा का नक्शा देखो तो
ऐसा लगता है जैसे वह मध्यप्रदेश की दहलीज़ पर खड़ा उसके घर में झांक रहा हो ৷ यद्यपि विगत एक नवम्बर दो हज़ार से पूर्व की ओर का
मध्यप्रदेश अब छत्तीसगढ़ राज्य कहलाने लगा है ৷ भंडारा एक पड़ोसी की तरह दोनों के बीच में खड़ा हुआ है ৷ उसे लगता है जैसे बाप ने बेटे के बड़े होने के बाद
उससे कहा हो कि जाओ अब अलग घर में जाकर रहो ৷
मेरे बचपन के दिनों में जिला मुख्यालय भंडारा एक छोटा
लेकिन महत्वपूर्ण शहर था जिसे हम एक बड़ा क़स्बा भी कह सकते थे । भंडारा चावल की
विभिन्न जातियों के उत्पादन के लिए प्रसिद्ध था उसे चावल का भंडार भी कहते थे वहीं
भंडारा की गलियों में पीतल के बर्तनों के निर्माण के छोटे छोटे कारखाने थे जिनके
सामने से गुजरते हुए पीतल के बर्तनों चमकाने और आकार देने के लिए उन्हें पीटने के
दृश्य आम थे ऐसा कहते थे कि बर्तनों से आती भंडर भंडर आवाज़ की वज़ह से शहर का नाम
भंडारा हो गया था ৷
भंडारा ज़िला अपने आप में बहुत सारे गांवों को समेटे
हुए था ৷ जब भी गाँवो की ओर से हवाएँ
बहकर भंडारा शहर की ओर आतीं उनमे पकते हुए धान की महक होती तब धीरे धीरे शहर होता
हुआ भंडारा भी गाँव लगने लगता ৷ उन दिनों शहरी
संस्कृति ग्रामीण संस्कृति के बहुत करीब थी ৷ यदि हम इतिहास के पन्ने पलटें तो देखते हैं कि हमारे देश
में ग्रामीण समुदाय कभी भी शहरी समुदाय पर आश्रित नहीं रहा । हड़प्पा और मोहंजोदड़ो
संस्कृति में भी गाँवों तथा शहरों का सह अस्तित्व रहा है ।
आज गाँव और आधुनिक शहर के बीच भले ही अंतर दिखाई दे लेकिन
बीसवीं सदी के पूर्वार्ध में यह अंतर न्यूनतम था । भंडारा शहर उन दिनों गाँव से
शहर बनता हुआ एक ऐसा कस्बा था जहाँ मूल खेतीहर मानव समुदाय अपनी संस्कृति और
परम्पराओं का पालन करता हुआ शहरी संस्कृति के साथ सामंजस्य स्थापित करने का प्रयास
कर रहा था । तत्कालीन स्थितियों में नये राज्यों में राज्य सरकार द्वारा नगरीय व
ग्रामीण क्षेत्रों का निर्धारण किया जा रहा था । इन क्षेत्रों में स्थानीय शासन
हेतु नगरपालिका जैसी इकाइयों का गठन किया जा रहा था । लेकिन नवनिर्माण की यह गति
बहुत धीमी थी ৷
शरद कोकास
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