विजयादशमी का दिन मेरे लिये मेरे बाबूजी प्रो. जगमोहन कोकास का जन्मदिन है । वैसे तो उनका जन्म दो अक्तूबर को हुआ था लेकिन हम लोग दशहरे के दिन ही उनका जन्मदिन मनाते थे । ऐसे ही माँ का जन्मदिन दिवाली के दिन । इस दिन वैसे ही घर में पर्व का उल्लास विद्यमान रहता था सो अतिरिक्त रूप से कुछ करने की आवश्यकता ही नहीं होती थी ।
बाबूजी के निधन के पश्चात एक दिन मैं उनकी चिठ्ठियाँ देख रहा था जो उन्होने मुझे मेरी पढ़ाई के दौरान लिखी थीं । मैं अपनी पढ़ाई - लिखाई के लिए लगभग घर से बाहर ही रहा और नौकरी भी घर से बाहर ही मिली सो घर से मेरा सम्पर्क पिता की चिठ्ठियों के माध्यम से बना रहा । पिता के अलावा तमाम लोगों की चिठ्ठियाँ मैंने सहेजकर रखी हैं और ऐसी चार पाँच हज़ार चिठ्ठियों का खजाना मेरे पास है । तीन दशकों तक लिखी अपने पिता की चिठ्ठियाँ जब मैं देख रहा था कि मेरे मित्र और ‘ सापेक्ष ‘ के सम्पादक महावीर अग्रवाल आए और उन्होनें सलाह दी “ इतनी सारी चिठ्ठियाँ ? यह समय के साथ नष्ट हो जाएंगी , इन्हे छपवा क्यों नहीं लेते ।
मैंने सोचा ,लोग अपने पूर्वजों की स्मृति में पदक पुरस्कार जारी करते हैं , प्याऊ धर्मशाला बनवाते हैं , उनका लिखा साहित्य प्रकाशित करवाते हैं , मैं उनकी चिठ्ठियाँ ही प्रकाशित करवा दूँ । मैंने तुरन्त पांडुलिपी तैयार की । पत्र छाँटते छाँटते घर के अन्य लोगों के पत्र भी मिले सो उन्हें भी शामिल कर लिया । पांडुलिपी जैसे ही अपने अन्तिम स्वरूप तक पहुँची मेरी जीवन संगिनी लता ने कहा “ क्यों मेरे परिवार के लोग आपके परिवार के लोग नहीं हैं , सो कोकास परिवार की चिठ्ठियों में जबलपुर के विश्वकर्मा परिवार की चिठ्ठियाँ भी शामिल हो गईं । इस तरह यह किताब बनी “ कोकास परिवार की चिठ्ठियाँ “ । फिर मैंने सोचा क्यों न इन चिठ्ठियों की किताब को एक सन्दर्भ ग्रन्थ का रूप दिया जाए , सो मैंने अपने पुरखों के विगत दो सौ वर्षों के इतिहास को इसमें शामिल किया , पत्रों में जिन लोगों के नाम थे उन्हे फोन किया और उनकी जन्मतिथी और संक्षिप्त विवरण भी फुटनोट्स के रूप में किताब में शामिल किया ।
फिर एक पारिवारिक समारोह में इस किताब का विमोचन हुआ और तमाम रिश्तेदारों को यह किताब भेज दी गई । अपने साहित्यिक मित्रों या अन्य लोगों को यह किताब मैंने नहीं दी यह सोचकर कि उन्हे मेरे परिवार और मेरे पिता की स्मृतियों से क्या मतलब ,लेकिन विगत दिनों बडौदा से मेरे कवि मित्र नरेश चंद्रकर आये तो वे यह पुस्तक ले गए । चिठ्ठियों की इस किताब को पढ़कर एक चिठ्ठी उन्होने मुझे लिखी जो परसों ही मुझे मिली । साहित्यिक पुस्तकों की समीक्षा तो बहुत होती है लेकिन इस चिठ्ठियों की किताब पर किसीने पहली बार इस तरह से लिखा है ।
नरेश की यह चिठ्ठी पढ़कर मुझे लगा कि लोग सही कहते हैं प्रेम और भाईचारे के लिए खून का रिश्ता होना ज़रूरी नहीं है । नरेश के लिए बहुत प्यार सहित और अपने बाबूजी जगमोहन कोकास को उनके जन्मदिन पर याद करते हुए नरेश के पत्र के दो पृष्ठ , किताब का चित्र और बाबूजी के लिखे कुछ पोस्टकार्ड यहाँ दे रहा हूँ । इन पत्रों को पढ़ने के लिये उन्हे आप क्लिक करके एवं बड़ा करके देख सकते हैं । इन पत्रों को यहाँ देने का उद्देश्य केवल यह बताना है कि पत्र पिछली सदी में भी लिखे जाते थे और अब कम्प्यूटर , ई मेल , मोबाइल और फोन के ज़माने में भी लिखे जा रहे हैं । इस किताब को अगर आप देखेंगे तो आपको इन पत्रों का महत्व ज्ञात होगा । इन पत्रों में परिवार के सदस्यों के जन्म, शादी ब्याह , मृत्यु और अन्य क्रियाकलापों का विवरण है । मैने पिछली नौ पीढ़ियों के बेटे बहुओं और बेटियों दामादों व उनकी संतानों की वंशावली भी इसमें शामिल की है । यह किताब मेरे परिवार के सदस्यों के लिये परिवार की एक डायरी की तरह काम करती है ।
बहुत बड़ी पूंजी हैं ...संभाल कर रखना जरुरी है !!
जवाब देंहटाएंअच्छा लगा साथ ही एक नया आइडिया भी आया !!
धन्यवाद और आभार .......के साथ हैप्पी बड्डे टू बाबू जी !!
बड़े भाई ये किताब मुझे भी चाहिए ...मेरे अनुरोध की रक्षा कीजिये...पता इस मेल वाला ही होगा....
जवाब देंहटाएंअरे वाह! बहुत बढिया काम किया है आपने. आपसे प्रेरित हो के मेरा मन भी कर रहा है, वंश वृक्ष को सन्दर्भ ग्रन्थ के रूप में सहेजने का.
जवाब देंहटाएंविजयादशमी की बहुत बहुत बधाई
जवाब देंहटाएंशरद भाई इस अनोखी पुस्तक के बारे में पढ़कर अच्छा लगा। नरेश जी ने महत्वपूर्ण बातें रेखांकित की हैं। मैं भी अपने पिता को बाबूजी कहता हूं। ऐसा मौका कम आया कि मैं घर से बाहर रहा होऊं सो ऐसे पत्रों से वंचित रहा हूं। चार पोस्टकार्ड देखकर अंदाजा हो रहा है कि बाबूजी के पत्रों में किस तरह की बातें रही होंगी।
जवाब देंहटाएंयह भी सही है कि आज के समय में नेट तो फिर भी सीमित है लेकिन मोबाइल फोन ने सब संभावनाएं समाप्त कर दी हैं। जितना लिखकर हम व्यक्त करते थे,वह अब कुछ सेकंडों में कहकर समाप्त कर देते हैं और उसका कोई दस्तावेज हमारे पास नहीं होता ।
शरद जी,
जवाब देंहटाएंअमेरिकी समाज में मैंने जिनिआलॉजी को लेकर मैंने बहुत उत्साह देखा है. कई लोग तो शौकिया ही अपने परिवार और वंश की जड़ें तलाशते यूरोप के गुमनाम शहरों/क़स्बों तक पहुँच जाते हैं.
मैं यहाँ जिस क़स्बे में रहता हूँ वहां की सार्वजनिक लाइब्रेरी में भी स्थानिक इतिहास को समर्पित एक पूरा विभाग है. इसके अलावा आम ज़िंदगियों की कहानियों को मौखिक रूप से सहेजने का एक अभिनव उपक्रम स्टोरीकोर (storycorps.org)के नाम से यहाँ देशभर में चलाया जा रहा है. हमारे देश में ऐसे दस्तावेजीकरण को लेकर जागरूकता की कमी मुझे बेहद खलती है; इस अनुषंग में आपका यह प्रयास महत्त्वपूर्ण है. हमें ऐसे ही अनेकों व्यक्तिगत और सांगठनिक प्रयासों की आवश्यकता है.
प्रसंगवश, आपने ब्लॉग पर ब्रूकलिन ब्रिज की जो तस्वीर दी है उसकी पृष्ठभूमि में नज़र आ रही इमारतों में एक में मैं कुछ समय काम कर चुका हूँ.
शरद भाई ,
जवाब देंहटाएंसब से पहले पूज्य बाबूजी को शत शत नमन करता हूँ |
इस के बाद क्यों कि आज दशहरे का शुभ दिन है :- आपको और परिवार में सभी को दशहरे की बहुत बहुत हार्दिक बधाइयाँ और शुभकामनाएं !
आप के मित्र से सही में आपको बहुत ही नायाब आईडिया दिया था ..... यह पुराने पत्र काफी सारी यादो को वापस ले आते है ....जिन्हें हम लोग रोज़मर्रा की ज़िन्दगी में भूल चुके होते है !
इस बेहद उम्दा पोस्ट के लिए आपको बहुत बहुत बधाइयाँ !
बाबूजी को विनम्र श्रद्धांजलि ...अमूल्य धरोहर को सहेजने का प्रयास हैं चिट्ठियों का प्रकाशन
जवाब देंहटाएंभैया,परम श्रद्धेय बाबू जी के पत्रों को पढ़ कर भावुक हो जाना स्वाभाविक ही है.. नरेश जी ने उनका एकदम सटीक विश्लेषण किया. आपको सौभाग्यशाली महसूस कर रहा हूँ. उनके पत्रों में एक आदर्श पिता के विचारों की छवि स्वाभाविक रूप से झलक रही है और अपने पुत्र के लिए उनके मन में सुरक्षा, स्नेह एवं जीवन जीने की सही कला को प्रशिक्षित करने की भावना भी दृष्टव्य है.
जवाब देंहटाएंएक आदर्श पिता और उनके उतने ही आदर्श पुत्र को मेरा नमन.. और हाँ बाबू जी के हिन्दी और अंग्रेज़ी दोनों ही लेखन बहुत स्पष्ट और सुन्दर लगे. वो जिस लोक में भी हों उनको जन्मदिन की शुभकामनाएं.
बहुत बढिया काम किया आपने!
जवाब देंहटाएंबधाई!
इन पत्रो को और दादी माँ और दादा जी को याद्कर करके आज भी फक्र होता है कि हमें कितने अच्छे दादा जी दादी माँ मिले थे । उनका प्यार और आशिर्वाद जीवनभर साथ रहेंगा । मौत एक ऐसी चीज है कि इंसान देखने को भी नही मिलता है । बस उनके साथ बिताया हर लम्हा सुनहरी याद में शामिल हो जाता है इन पत्रो को पढ़ कर आज भी रोना आ जाता है । दादी माँ दादा जी को मेरी प्यार भरी श्रद्धांजलि । हम बह्त भाग्य्वान है कि हमें इतना प्यार करने वाले दादा जी दादी माँ मिले थे । पत्र मन दिल की भाषा बोलते है प्ते खाजाने से कम नही है ।आपकी यह पत्रो की किताब लाजबाब है । मार्मिक है सुदंर है । महावीर अकंल का यह नायाब सुझाव आज हमारे पास है पत्रो की
जवाब देंहटाएंसुदंर किताब के रुप मे है ।
सार्थक और सराहनीय प्रस्तुती.....आपने अपने पिता की यादों को सम्मान देकर स्तुत्य कार्य किया है ...
जवाब देंहटाएंपुराने पारिवारिक पत्रों को बरसों तक सहेज कर रखना और उन्हें कभी-कभी उलट-पुलट कर पढ़ना एक सुखद अनुभूति होती है।...परिवार की इस धरोहर के प्रति आप के मन में जो गौरव की अनुभूति होती होगी उसका अंदाजा यहां दिए पत्रों को पढ़का लगाया जा सकता है।...पुस्तकाकार प्रकाशित करवाकर आपने अच्छा किया, आगे चलकर ऐसी कृतियां देश की भी धरोहर बन जाती हैं।
जवाब देंहटाएंनमन उन्हें,
जवाब देंहटाएंयह एक सुन्दर और शानदार प्रयास किया है आपने, इस थाती को सहेजने के लिए. तारीफ़ के लायक काम.
आशा है यह विजयादशमी आपके जीवन में विजय और सफलता के नए सोपान लेकर आएगी
बधाई और शुभकामनाएं
अपने परिवार को ही नहीं...सबोको आपने एक अनुपम उपहार दिया है...बहुत ही बेहतरीन प्रेरणास्पद कार्य.
जवाब देंहटाएंआनेवाली पीढियाँ बहुत कुछ सीख सकेंगी...सिर्फ परिवार के बारे में ही नहीं...पत्र लिखने की विधा के बारे में भी...जो लुप्तप्राय हो रही है.
mere paas bhee poora khazana hai........par bantne jitna bada dil nahee...........
जवाब देंहटाएंbahut accha laga aapka ye kadam.........
share karne ke liye aabhar..........apanee jado se jude hai ve meree nazaro me bahut bhagyshalee hai..........
Yah ek nirala prayas hai aapka apne pariwar ke sneh ko sanjoye rakhne ka. Prerak idea hai yah. Par main to ab sabhee cheejen kum karane ke paksh men hoon samhalta nahee sab
जवाब देंहटाएंAre han aapke Babuji ke janm diwas par shubh kamnaen.
जवाब देंहटाएंबेहतरीन!!!!!
जवाब देंहटाएंबहुत ही सुन्दर एवं सार्थक प्रस्तुति ।
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छा लिखा है आप ने, अच्छी प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंजनाब शरद साब ,सबसे पहले तो दीपावली की शुभकामना .में आपके पास मोहतरम उदय जी के ब्लॉग पर की गयी टिप्पणी से बेहद मुत्त्सिर होकर पहुंचा हूँ वहाँ उनके पोस्ट पर टिप्पणी करना उचित नहीं लगा पर बहुत प्रभवित हुआ .यहाँ तक की अब तक बेटे के मेल से टिप्पणी करता था आज ही अपनी मेल भी बनाई .आपके ब्लॉग पर आकर अभिभूत हुआ सच में आपने जो पूर्वजों की धरोहर संभाल कर रखी और सम्मान दिया वह काबिलेतारीफ है .जो पत्र मैंने पढ़े वोह आपके लिए तो चिरागे राह हुए ही होंगे कोई भी उनसे शिक्षा ले सकता है ,नमन उन्हें .आपने सही अंदाज़ा लगाया था मेरी रूचि के बारे में .मैं कविता का सेवक बतोर पाठक तो सदा से हूँ मगर टूटा फूटा अभी हाल ही लिखने लगा हूँ और मेरे मोहसिन है राकेश जी उनके ब्लॉग स्वार्थ पर पोस्ट करता हूँ .आज मेंने आपको खोजा है शुक्र है मिलता रहूँगा .धन्यवाद .
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