हम फिल्में क्यों देखते हैं ?
हम में से नब्बे प्रतिशत लोग इस प्रश्न का उत्तर देंगे “ मनोरंजन के लिये “ । फिल्म बनाने वाले भी सरकार की तरह जनता की पसन्द को ध्यान में रख कर और अपनी अक्ल से उनकी समझ का अन्दाज़ लगाकर फिल्में बनाते हैं । जो लोग जनता की नब्ज़ पहचानते हैं उनकी फिल्में सफल होती हैं । हाँलाकि अब यह फार्मूला भी काम नहीं कर रहा है और एक्ज़िट पोल की तरह निर्माताओं के दावे ग़लत साबित हो रहे हैं । इसीलिये रियलिटी शो में कलाकारों को प्रस्तुत कर उनसे फिल्म का प्रमोशन करवाया जा रहा है ताकि दर्शक किसी तरह उनकी फिल्में देखने आये । लेकिन इस बीच दर्शकों की एक नई समझ विकसित हुई है और वे बेसिर-पैर की फिल्मों को नकार रहे हैं इनमें न केवल भूत-प्रेत,अपराध, फूहड़ हास्य ,सस्ते रोमांस आदि की फिल्में है बल्कि दर्शक तकनीकी दृष्टि से कमज़ोर फिल्मों को भी नापसन्द कर रहा है । इसके बावज़ूद निर्माता करोड़ों रुपये खर्च कर ऐसी निरर्थक फिल्में बना रहे हैं ।
वहीं दूसरी ओर ऐसी फिल्में भी बन रही हैं जिनमें जनता से जुड़े हुए विषयों पर सार्थक सम्वाद है ,जिनमें पर्यावरण प्रदूषण से उपजी समस्याओं पर चिंता है , निजीकरण और आर्थिक मन्दी से उपजे हालात पर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास है , कारखानों में छँटनी से उपजी बेरोजगारी और किसानों द्वारा की जा रही आत्महत्या के बाद समाज का नज़रिया है । सिर पर मैला ढोने वाले सफाई कामगारों के हालात पर एक नज़र है , बच्चों के मनोविज्ञान पर बात है ,धर्म और समाज के रिश्तों की पड़ताल है ।
लेकिन फिर वही मूल प्रश्न .. हम तो मनोरंजन के लिये सिनेमा देखते हैं यह सब देखना है तो ... पैसे क्यों खर्च करें ? पाँच –छह सौ की टिकट हम यह सब देखने के लिये थोड़े ही खरीदते हैं ? हमें देश और समाज की चिंता है लेकिन उसके बारे में हम अन्य माध्यमों से जान लेंगे ..सिनेमा से ही क्यों जानें ?
लेकिन समाज की चिंता करने वाले फिल्मकार इससे निराश नहीं है वे अपनी गाँठ का पैसा लगाकर ऐसी फिल्में बना रहे हैं और बिना किसी व्यावसायिक उद्देश्य या लोकप्रियता की फिक्र किये बगैर अपने काम में लगे हैं । शायद इसीलिये अब ज़रूरत है ऐसी फिल्में दर्शकों तक पहुँचाई जायें । इस उद्देश्य को ध्यान में रखकर विगत 13,14,15 नवम्बर को भिलाई में जन संस्कृति मंच द्वारा “ मुक्तिबोध स्मृति फिल्म एवं कला उत्सव “ का आयोजन किया गया । इस उत्सव में प्रथम दिन उद्घाटन के अवसर पर हिन्दी के प्रसिद्ध आलोचक डॉ.मैनेजर पाण्डेय उपस्थित थे । .मैनेजर पाण्डेय ने मुक्तिबोध की पुस्तक “भारत इतिहास और संस्कृति “ पर 1962 में लगे प्रतिबन्ध के बारे में विस्तार से बताया । तत्पश्चात शाम को कवि विनोद कुमार शुक्ल, मंगलेश डबराल और वीरेन डंगवाल का कविता पाठ हुआ । इस अवसर पर चित्रों व कविता पोस्टर्स की प्रदर्शनी भी लगाई गई तथा कमलेश्वर साहू के कविता संग्रह "पानी का पता पूछ रही थी मछली "का विमोचन किया गया ।
फिल्मोत्सव के दूसरे दिन फिल्मों का प्रदर्शन किया गया । इनमें चार्ली चैपलीन की मॉडर्न टाइम्स, गीतांजली राव की ‘प्रिंटेड रेनबो ‘ ,विनोद राजा की ‘महुआ मेववाज़ ‘ इटली के विक्टोरिया डिसिका की ‘बाइसिकल थीफ ‘, राजेश चक्रवर्ती की ‘हिप हिप हुर्रे ‘ इंग्लैंड के रैम्डोल की सीरीज़ ‘ ओपन अ डोर ‘ इरान के माजीद मजीदी की एक नेत्रहीन बालक पर बनी फिल्म ‘ कलर ऑफ पैराडाइज़ “ ,मिशेल टी क्लेरे की फिल्म ब्लड एंड ऑयल , सूर्यशंकर दास की नियमगिरी के जंगलों पर बनी फिल्म ‘ नियामराजा का विलाप “ अमुधन आर .पी की सिर पर मैला ढोने वाली स्त्री पर बनी फिल्म “ पी (शिट) “ तुषार वाघेला की आत्महत्या करने वाले किसानों पर बनी फिल्म “फैंटम ऑफ अ फर्टाइल लैंड “का प्रदर्शन किया गया ।
इस फिल्म उत्सव की विशेष बात यह कि इसमें अंतिम दिन प्रसिद्ध फिल्म मेकर व निर्देशक एम.एस.सथ्यु की विभाजन के बाद मुस्लिमों की स्थिति पर बनी फिल्म “गर्म हवा” का प्रदर्शन किया गया । इस फिल्म के प्रदर्शन के दौरान श्री सथ्यु स्वयं उपस्थित रहे और उन्होने दर्शकों के प्रश्न के उत्तर भी दिये ।
इस फिल्म उत्सव मे प्रदर्शित फिल्मों पर अगामी पोस्ट में एक एक कर नज़र डालने की कोशिश करूँगा ताकि आप सभी को इन की विषय-वस्तु से परिचय कराते हुए वर्तमान समय में इनकी ज़रूरत व उपयोगिता व महत्व के बारे में कुछ बतला सकूँ व आपके विचार जान सकूँ ।
फिलहाल हम इस प्रश्न पर ही चर्चा करें ..हम फिल्में क्यों देखते हैं और प्रतिरोध का सिनेमा क्यों ज़रूरी है और ये फिल्मकार क्यों बनाते हैं इस तरह की फिल्में ?
(चित्र 1.कवि विनोद कुमार शुक्ल ,2 कवि वीरेन डंगवाल ,विनोद जी व मंगलेश डबराल 3 उद्घाटन चित्र- रमेश मुक्तिबोध.डॉ.मैनेजर पाण्डेय,मेघनाथ जी, मिता दास व मीना शर्मा 4 जन संस्कृति मंच के सियाराम शर्मा व डॉ.मैनेजर पाण्डेय व दर्शक 5.शरद कोकास व डॉ.मैनेजर पाण्डेय 6. "गर्म हवा " के निर्देशक एम.एस.सथ्यु )
जानकारी भरी अच्छी पोस्ट. ऐसे आयोजन होते रहने चहिये जो इस बात का संदेश देते हैं की फ़िल्में समाज में सकारात्मक संदेशों की सशक्त वाहक हैं और लोगों का मात्र मनोरंजन नहीं करती वरन चिंतन के लिए भी प्रेरित करती हैं.
जवाब देंहटाएंअच्छी रिपोर्ट और चित्र देख कर आनन्द आ गया.
जवाब देंहटाएंआम आदमी दिनभर परिश्रम, खासकर शारीरिक श्रम करने वाले और जिन्हें चिंतन मनन से कोई सरोकार नहीं होता, उनके लिए तो थोडा हंसने का मौका मिलना चाहिए इसीलिए शायद वह सिनेमा को मनोरंजन का साधन मात्र ही मानकर चलता है. वैसे आम तौर पर ऐसे सोच वालों का प्रतिशत जादा है. अतएव आपके द्वारा लिखे गए विषयों पर भी लोगों को सोचना होगा और इसे अमल में लाना भी होगा. बढ़िया काम किया है आपने.
जवाब देंहटाएंइस पोस्ट के बहाने हम भी आयोजन में शामिल हो गये. शानदार तस्वीरें और रिपोर्ट भी.
जवाब देंहटाएंविभाजन की त्रासदी झेले लोग फिर गरम हवा देने लगे तो निश्चय ही मन खिन्न होता है। आपने उस फिल्म की याद दिला कर बलराज़ सहानी के उच्च कोटि की अदाकारी को यादों के झरोखे मे ला खडा़ किया॥
जवाब देंहटाएंमुक्तिबोध के जन्मदिन पर इस शानदार प्रोग्राम के लिए आयोजकों का आभार। फिल्मों का चुनाव तो बेहतरीन था। आपके इस ब्लाग का उपशिर्षक "...पड़ोस..." बहुत पसंद आया।
जवाब देंहटाएंफिल्म , मनोरंजन और सामाजिक दाय पर आपका संक्षिप्त विवेचन अच्छा लगा |
जवाब देंहटाएंपाण्डेय जी को फोटो में देख कर अच्छा लगा | ज . ने.वि . में सर से क्लास में पढने
का सौभाग्य पा चुका हूँ | ऐसी साहित्यिक हलचल लगातार होती रहे , ,,,,,
धन्यवाद् ............
कला-माध्यम मनुष्य के व्यक्तित्व-विकास, सामाजिक चेतना के परिष्कार का ही जरिया बन कर उभरते हैं।
जवाब देंहटाएंइनका सिर्फ़ मनोरंजन के उद्देश्य तक ही सिमट कर रह जाना, व्यवस्थागत अपसंस्कृति की वज़ह से है।
इसीलिए आप यह वाज़िब प्रश्न उठा रहे हैं।
अच्छा लगा।
शरद जी हमे तो कई साल हो गये भारतिया फ़िल्मे देखे, ऎसी बात नही कि यहां मिलती ना हो, मेरे पास नयी फ़िल्मे करीब ४००, या इस से ज्यादा पडी होगी, जिन्हे ५, या १० मिंत से ज्यादा नही देखा.... ओर इन नयी फ़िल्मो मै सिर्फ़ बकबास के ओर कुछ नही, अच्छी फ़िल्मे बनती है आज भी लेकिन हजारो मै एक जेसे कुछ साल पहले बनी थी रेन कोट, फ़िर डोली सजा के रख्ना, फ़िर राम पाल यादव की कुछ फ़िल्मे.
जवाब देंहटाएंपहले फ़िल्मे बनती थी तो कमपनी को पेसो से ज्यादा नाम की फ़िक्र होती थी, आज ना नाम की फ़िक्र है ना पेसॊ की, अरे काला धन जो सफ़ेद हो जाता है इसी बहाने, जब की नयी फ़िल्म कोप कुछ हजार लोग ही देखते है.
सभी चित्र बहुत सुंदर लगे, ओर आप ने लेख भी बहुत सुंदर लिखा.
धन्यवाद
हां हम मनोरंजन के लिए फिल्म देखते हैं। पर मनोरंजन का पैमाना अलग-अलग होता है सब के लिए। आज की फिल्मों में मानवीय संवेदना, लोकाचार. हमारी परंपराओं, संस्कृतियों, ज्वलंत समस्यायों का नहीं, गुल्लक तोड़कर धन्न टनन का प्रतीक ज्यादा है, बीड़ी जलाने से लेकर पप्पू के डांस की विवेचना है। कान-फाड़ू संगीत, नृत्य के नाम पर मस्ती करती भीड़ का पागलपन अगर मनोरंजन है, तो मुझे ऐसा मनोरंजन नहीं चाहिए। प्रायोजकों, विज्ञापनदाताओं को दर्शानेवाले पोस्ट कहां ले जाएगा हमारी संस्कृति पंरपराओं को । जैसे प्रतिरोध के सिनेमा बनाने वाले को उनकी फिल्में मानसिक तुष्टि प्रदान करती हैं, वैसे ही आपके आलेख ने मुझे दिया है।
जवाब देंहटाएंइतनी प्रभावशाली कहानी लिखने के लिए बड़ी प्रतिभा चाहिए और आप में है ।
बढ़िया रिपोर्ट।
जवाब देंहटाएंऐसे अवसर कुछ दिनों के लिए प्राणवायु दे जाते हैं।
बहुत ही बढ़िया रिपोर्ट लिखा है आपने और अत्यन्त सुंदर ढंग और विस्तारित रूप से प्रस्तुत किया है! एक से बढ़कर एक तस्वीरें हैं जो बहुत ही अच्छा लगा! वैसे देखा जाए तो मनोरंजन के लिए काफी चीज़ें हैं पर कुछ लोगों को देखकर तो विचार नहीं किया जा सकता ! ऐसे बहुत लोग हैं जिनके लिए सिनेमा एकमात्र मनोरंजन हैं और उसी में लोगों को आनंद मिलता है!
जवाब देंहटाएंसमाज की ज़रूरत है ऐसी फिल्में और निरंतर पसंद भी की जाएगी अभी युवा वर्ग मनोरंजन की चाह में रहता है पर अभी भी समाज में एक ऐसा वर्ग है जो इस तरह की फिल्मों को प्रमोट करते है अन्यथा इस तरह आयोजन ना होते ...
जवाब देंहटाएंअसर तो करता ही है बस इसे जनसामान्य तक पहुचने की ज़रूरत है १० में से २ पर तो समाज के स्थितियों असर होगा ही..
बढ़िया प्रस्तुति शरद जी..धन्यवाद
अच्छी रिपोर्ट और सामयिक प्रश्न भी....मुझे लगता है कि विभिन्न मनः-स्थितियों में एक ही व्यक्ति विभिन्न फ़िल्में पसंद करता है..इसलिए कोई एक क्षण में तो कह सकता है कि वह फ़िल्में मनोरंजन के लिए(क्योंकि फिल्मों का इतिहास मनोरंजन से जुड़ा है) देखता है...परन्तु अच्छी फ़िल्में देखी ही जाती हैं..तभी तो कुछ अच्छी फ़िल्में बाद में असर छोड़ती ही हैं..
जवाब देंहटाएंमाजिद मजीदी की लगभग सारी फ़िल्में बेहतरीन होती हैं, 'बायास्किल थीफ' और 'नीयामराजा का विलाप' भी मैंने देखी है और प्रभावित हुआ हूँ....
शरद जी अब तो फ़िल्म कोई देखता ही नहीं
जवाब देंहटाएंफ़िल्म बन भी कहां रहीं हैम दर्शक घसीटने ब्ल्यू-फ़िल्में
{सेक्स-आधारित} फ़िल्म बनतीं है. दर्शक उसे चाव से देख रहे है.
साल में एकाध आमीर जैसा कोई आता अच्छी फ़िल्म दे जाता
वरना लोग तरस गये सार्थक सिनेमा के लिये. बेशक बस अब
खैर छोडिये क्या करेंगे मन के दर्द को जान कर
मक्कार निर्माताओं ने आम आदमी को सेक्स हिंसा का कूडादान मान लिया है
अब तो सवाल ये उठाइये:-"गिरीश बिल्लोरे फ़िल्म क्यों नहीं देखता..?"
ऐसे आलेख समय की ज़रूरत है शुक्रिया
जवाब देंहटाएंयह आप को अजीब लग सकता है कि कोई भी कलात्मक सृजन पहले स्वांत:सुखाय होता है फिर कुछ और.. अब यह स्वांत:सुखाय जन के सुख से जुड़ जाय तो कला की सिद्धि मानी जा सकती है। व्यावसायिक रचना कर्म में स्वांत:सुखाय गौड़ होता है और जन रंजन के माध्यम से धनार्जन ही उद्देश्य होता है।
जवाब देंहटाएंफिल्मों के भी दो रास्ते ऐसे ही हैं। जन और व्यक्ति के सुख का संतुलन कला का उद्देश्य होना चाहिए। लेकिन जो होना चाहिए वह होता बहुत कम है - excellence is a rare commodity.
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ऐसे आयोजन महत्त्वपूर्ण होते हैं क्यों कि ये संस्कारित करने के साथ साथ आप की उन्नत सोच को आगे बढ़ाते हैं। रिपोर्ट के लिए आभार।
शायद ‘मनोरंजन’ और ‘मन के उद्वेलन’ का फर्क होने के कारण ही मुख्य धारा और समानान्तर सिनेमा के दो अलग-अलग दायरे बन गये। बिल्कुल भिन्न पैराडाइम में ये पल बढ़ रहे हैं। अब आवारा, श्री-४२०, मेरा नाम जोकर, लीडर, क्रान्तिवीर जैसी फिल्में नहीं बनती जो दोनो उद्देश्य पूरा करती हों।
जवाब देंहटाएंjai ho !
जवाब देंहटाएं" bahut hi badhiya report sir ..aapne to is report ke jariye ek SAMAJIK PRASHN PER ujala daal diya ."
जवाब देंहटाएं" aapki is post ko salaam aur aapko badhai "
----- eksacchai { AAWAZ }
http://eksacchai.blogspot.com
" bahut hi badhiya post sir aur aapka ye report bahut hi pasand aaya hume .aapne is post ke jariye samajik prashan per ujaala daala hai sir "
जवाब देंहटाएंरिपोर्ट पेश करने का तरिका लाजवाब रहा, साथ ही लगाये तस्विरों ने चार चाँद लगा दिया । कल आपकी पोस्ट देख नहीं पाया था उसके लिए क्षमा याचना करता हूँ।
जवाब देंहटाएंहर किसी का अपना अपना दृष्टिकोण होता है ............ बेसिर पैर और जादू टोने वाली पिक्चर्स बनाने वाले भी हैं और ये सोच कर ही बनाते हैं की उनको भी देखने वाले हैं ........... इसलिए मेरा मानना है की हर तरह का दर्शक वर्ग है ... अपनी अपनी सोच और ज़रूरत के अनुसार हर तरह का सिनेमा चलता है ..... ये अच्छी बात है की समाज की ज्वलंत समस्याओं के बारे में भी लोग सोचते हैं और सिनेमा के शशक्त माध्यम का उपयोग करते हैं ..... ऐसे फिल्मोत्सव ज़रूर होने चाहिएं जिससे किसी भी निर्माता को पाठक कमी ना रहे ...... आपकी रिपोर्ट और विषय अच्छा है ...... विचारणीय है ...
जवाब देंहटाएंbahut achha ayojan raha apke yaha...mujhe to lagta hai ki is tarak ke ayojan hote rahne chahiye...
जवाब देंहटाएंAapne to mere mankee baat kah daalee...sach hai...badee hee nichale darjekee filmon pe kyon paisa barbaad kiya jay?
जवाब देंहटाएंGaram Hava ek behtareen film thee...har drushteese...kamal abhinay, kamal kee katha, tachneek...sab kuchh..
http://shamasansmaran.blogspot.com
http://aajtakyahantak-thelightbyalonelypath.blogspot.com
बहुत अच्छी लगी यह फ़िल्म विषयक चर्चा ।
जवाब देंहटाएंAapke prashn ka uttar तो bahuton ne de दिया ...हम तो sirf tasveerein dekhege ...profile में लगी tasveer और abki tasveer में कोई antar नहीं .....!!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया रिपोर्ट.ऐसे आयोजन मन को सोचने और महसूस करने के कुछ और मौक़े दे जाते हैं और इस खाद पानी से मन की उर्वरा शक्ति निश्चित रूप से बढ़ जाती है.धन्यवाद इस अच्छी प्रस्तुति के लिए.
जवाब देंहटाएं्फ़िल्म समरोह की एक बहुत बढ़िया रिपोर्ट ।पढ़ते हुये लगा मैं खुद वहां उपस्थित हूं।
जवाब देंहटाएंपूनम
अच्छी रिपोर्ट है ....अच्छा लगा पढ़ कर.
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