मुक्तिबोध स्मृति फिल्म एवं कला उत्सव भिलाई : फिल्म “ गर्म हवा “ पर बात
इस फिल्मोत्सव में प्रदर्शित फिल्मों पर बात तो मैं प्रथम दिन के फिल्म प्रदर्शन से करना चाहता था लेकिन कल दोपहर में महफूज़ अली का फोन और शाम को उनकी पोस्ट पढने के बाद महसूस हुआ कि बात अंतिम दिन प्रदर्शित एम.एस.सथ्यु द्वारा निर्देशित फिल्म गरम हवा से शुरू की जाये । सबसे पहले सन्क्षेप में फिल्म की कथावस्तु पर बात कर लें ।
सलीम मिर्ज़ा (बलराज साहनी) आगरा में जूता बनाने का धन्धा कर रहे हैं कि अचानक विभाजन के बाद और गांधी जी की हत्या के बाद स्थितियाँ बदल जाती हैं । उनके बड़े भाई हलीम मिर्ज़ा पाकिस्तान में अपना भविष्य देखते हैं और पत्नी व बेटे के साथ पाकिस्तान चले जाते हैं । सलीम मिर्ज़ा खुद्दार व सिद्धांतवादी व्यक्ति हैं और उन्हे भारत में ही अपना भविष्य और सुरक्षा नज़र आती है।
हलीम मिर्ज़ा के जाने के पश्चात त्राज़दी का दौर शुरू होता है । मकान उनके नाम पर है सो सरकार द्वारा यह मकन एवेक्यू प्रॉपर्टी घोषित कर पाकिस्तान से आये अजमानी नामक एक सिन्धी व्यापारी को दे दिया जाता है । सलीम मिर्ज़ा को अपनी बूढ़ी माँ ,पत्नी, बेटे व बेटी सहित यह पुश्तैनी मकान छोड़कर एक किराये के मकान में जाना पड़ जाता है जहाँ उनकी बूढ़ी माँ यह सदमा बर्दाश नहीं कर पाती व प्राण त्याग देती है ।
कारोबार बन्द होने की स्थिति में बैंक और साहूकार भी सलीम मिर्ज़ा को कर्ज़ नही देते क्योंकि उन्हे डर है कि वे कर्ज़ लेकर कहीं पाकिस्तान न भाग जायें । बेटे (फारुख शेख) के पास डिग्री है लेकिन मुसलमान होने के कारण उसे कहीं नौकरी नहीं मिलती । सलीम की बेटी अपने ही रिश्तेदारों द्वारा विवाह के प्रलोभन में दो बार छली जाती है और अंतत: आत्महत्या कर लेती है ।
हताश सलीम मिर्ज़ा भी अंत में अपनी पत्नी व बेटे के साथ पाकिस्तान जाने का निर्णय ले लेते है लेकिन तांगे मे स्टेशन जाते हुए आन्दोलनकारियों के एक जुलूस को देखकर उनका बेटा अपने दोस्तों के साथ उसमें शामिल होने के लिये चला जाता है । सलीम मिर्ज़ा का भी ह्रदय परिवर्तन हो जाता है और यह सोचकर कि अब चाहे जो हो भारत में ही रहना है , वे कहते हैं “ मैं इस तरह अब अकेले नहीं जी सकता “ । इतना कहकर वे आशावादी भविष्य की ओर मुड़ने का संकेत देते हुए संघर्ष करती जनता के लाल झंडे वाले जुलूस में शामिल हो जाते हैं । फिल्म समाप्ति का यह दृष्य बलराज साहनी के अभिनय जीवन का भी अंतिम शॉट था ।
35 साल बाद इस फिल्म की त्राज़दी को घटित होते हुए देखना भी भयावह लगता है । भिलाई में इस फिल्म के प्रदर्शन के बाद निर्देशक एम.एस.सथ्यु ने इस फिल्म की प्रासंगिकता को बताते हुए कहा “ आज भी हमारे देश की फिल्मों में एक मुसलमान को आम आदमी की तरह नहीं बताया जाता है ,उसे या तो स्कूटर ,मोटर मैकेनिक बताया जाता है या कोई शायर नुमा इंसान या बहुत हुआ तो कोई नवाब वगैरह ।
आज महफूज़ अली की पोस्ट में उनके भूतपूर्व सैन्य अधिकारी पिता द्वारा कहे वाक्य "साला ! मालूम कैसे चलेगा कि मुसलमान है " में इस दर्द को महसूस किया मैने । महफूज़ ने मुझसे कहा भी ..हमारी फिल्मों में एक मुसलमान को प्रोफेसर ,डॉक्टर,इंजीनियर या बुद्धिजीवी क्यों नहीं बताया जाता ? क्यों इतने वर्षों बाद भी उसे सन्देह की नज़रों से देखा जाता है ? जबकि “गर्म हवा” जैसी फिल्म में 35 बरस पहले यह बता दिया गया था कि हलीम मिर्ज़ा जैसे लोग विभाजन के तुरंत बाद पाकिस्तान जा चुके हैं और उनके सगे भाई सलीम मिर्ज़ा जैसे लोग इसी माटी मे जीने मरने की कसम खाकर इसी को अपना वतन समझकर इसमें रच बस चुके हैं । फिल्मों और समाज के बीच बहुत गहन अंतर्सम्बन्ध है ..क्यों न इसी सन्दर्भ में हम इसके अर्थ तलाश करें ?
(चित्र गूगल से साभार ) - आपका शरद कोकास
जानकारे के लिए शुक्रिया ! जहां तक महफूज अली जी के अहम् सवाल का जबाब है तो मैं यह कहूंगा कि यह सब बहुत कुछ हम लोगो के ही हाथ पर है कि हम समाज में कैसी छवि लोगो के समक्ष प्रस्तुत करते है ! उसमे सिर्फ देखने वालो को दोष देना ही उचित नहीं ! अब यही इस ब्लॉग जगत पर देख लीजिये एक ही पहलू के दो सिरे है एक तरफ महफूज भाई और दूसरी तरफ सलीम खान ! जमीन आसमान का फर्क और उसी फर्क को यहाँ पर्दर्शित करता मह्पूझ भाई के प्रति लोगो का प्यार ! और सलीम खान के प्रति ..... क्या बोलू ?
जवाब देंहटाएंइस विचारणीय पोस्ट के लिए आभार...शत-प्रतिशत सहमत हूँ..
जवाब देंहटाएंबलराज जी मेरे भी पसंदीदा अभिनेता थे भैया, सिर्फ इसलिए नहीं की वो एक अच्छे अभिनेता थे... बल्कि इसलिए भी की वो ज्यादातर संवेदनशील या सन्देश देने वाली सार्थक फिल्मों में ही काम करते थे.. और आजकल के शाहरुख़ वगैरह की तरह किरदार पर खुद को हावी नहीं होने देते थे बल्कि किरदार में खुद को पूरी तरह डुबो देते थे...
जवाब देंहटाएंगरम हवा देखि थी बहुत पहले बचपन में अभी इतना याद नहीं कब, आज दोबारा देखूँगा...
आपकी प्रस्तुति तो बस कमाल ही है..
जय हिंद...
दूरदर्शन पर कभी उनके प्रोडक्शन हाउस का नाटक "कल्पना" देखें उसे देखकर भी रोना आता है।
जवाब देंहटाएंशरद जी आप ने सही लिखा, वेसे आम आदमी के लिये एक भारतीय मुसलमान वेसे ही है जेसे एक अन्य भारतीया, यह मेरे अपने विचार है है, मेरे स्कुल टाईम मै हमारे गरुप मै जेनी, सिख ओर मुस्लिम घरो के लडके भी थे, लेकिन हमारे अंदर दिलो मै कभी भी एक दुसरे के धर्म को ले कर कोई बात नही होती थी, जेनी को जेनी कह कर गाली भी देते, वेसे ही मुसलमान को भी बुलते थे, फ़िर आफ़िस मै भी हमेरंग बिरंगे लोग मिले कोई भेद भाव नही, फ़िर यहां आया तो यहा दायरा बढा जिस मै अब पाकिस्तानि दोस्त भी शामिल हुये, सभी आपस मै मिलते है एक दुसरे के सुख दुख मै भी साथ देते है दिपावली ओर इद भी साथ मनते है, लेकिन कुछ सर फ़िरो के लिये हम किसी एक कॊम को बुरा कहे यह गलत है, अच्छा है हम उन सर फ़िरो की बात को ही नजर आंदाज कर दे, ओर बाकी लोगो से मिले जेसे हम सब इंसान है यह धर्म बर्म बाद की बाते है.
जवाब देंहटाएंअगर सारी दुनिया मै कोई एक धर्म हो जाये तो क्या पुरी दुनिया मै शांति हो जायेगी?? आज किसी भी धर्म मै देख ले लडाई झगडे हो रहे है, मै आज भी अपने पाकितानी दोस्त को बात करने से पहले दस गालिया देता हुं लेकिन मुझे उस से भाई से भी ज्यादा प्यार ओर विशवास मिलता है, भडकाने वालो से बात बन्द करे ओर बाकी सब तो मुझे महफ़ुज भाई ही लगते है.
आप का धन्यवाद
jaankari dene ka shukriya
जवाब देंहटाएंगर्म हवा बहुत पहले देखी थी . धुन्धली सी याद थी आज ताज़ा हो गई . आपका धन्यवाद
जवाब देंहटाएं'Garam hawa' dekhi thi isliye turant yaad aa gaya...har tarah se awwal darje kee film thi...vibhajan pe aisee film kabhi nahi bani..Mehfooz ji ka dard sahi hai..maaji rashtrpati mahoday, shri kalam ke baavjood ye haal hai...!
जवाब देंहटाएंधन्यवाद इस जानकारी के लिये
जवाब देंहटाएंइसी तरह के खाकों में हम लोगों को रख देते हैं -- होलीवूड की फ़िल्में भी यही करतीं हैं
जवाब देंहटाएंमसलन, नाजियों को और रशियनों को अधिकतर फिल्मों में ,
अकसर, बुरा ही दीखलाया गया है --
स्व. बलराज साहनी जी की अपनी बिटिया ने
इसी फिल्म ' गर्म हवा ' के दौरान ,
खुदकुशी कर
जान गंवाई थी ---
उसका असर पिता पर भी पडा था -
शायद आप ने भी इस के बारे में सुना होगा
- लावण्या
बहुत ही बढ़िया और सार्थक बात कह गये आप अपनी इस पोस्ट के माध्यम से फिल्म की कहानी भले ही चर्चा का विषय रही हो परंतु बहुत ही सार्थक प्रसंग..बहुत बहुत धन्यवाद शरद जी
जवाब देंहटाएंइस में प्रत्यक्ष अनुभव की बात की गई है, इसलिए सारे शब्द अर्थवान हो उठे हैं । विचारोत्तेजक!
जवाब देंहटाएंबहुत बढ़िया आलेख, शरद भाई !
जवाब देंहटाएंख़ास कर 'गर्म हवा' और महफूज़ भाई की पोस्ट के बीच का तालमेल गजब का है !
वैसे यह सच में सोचने का विषय है कि एक कौम को कब तक अपने होने की सजा भुगतनी होगी ? क्या यही एक कारण नहीं है कि कुछ लोग सच में 'उस तरफ' जाने का ख्याल रखते है?
आज भी हमारे देश की फिल्मों में एक मुसलमान को आम आदमी की तरह नहीं बताया जाता है ,उसे या तो स्कूटर ,मोटर मैकेनिक बताया जाता है या कोई शायर नुमा इंसान या बहुत हुआ तो कोई नवाब वगैरह ।
जवाब देंहटाएं----बात तो सच है लेकिन जब भी ऐसे मुद्दे उठते हैं हम सशंकित हो जाते हैं कि उठाने वाला कौन है कोई राजनीतिग्य, कोई मीडिया, (जिसे अपनी टी०आर०पी० बढ़ानी है) या फिर फिल्म-सीरियल वाले....
कुल मिलाकर यह कि मुद्दे को कौन कितनी इमानदारी से उठा रहा है। इसमें इसका क्या लाभ है।
-----आम जन का आम जन से खून-पसीने का नाता होता है वे इन सब बातों को तवज्जो नहीं देते।
मैने ये फ़िल्म नहीं देखी है. लेकिन आपने इसे देखने जैसा आनन्द दिलाया. अब ज़रूर खोजती हूं मिल जाये तो..
जवाब देंहटाएंBahut dukh hota hai ye dekh...ki sthitiyon me jyada sudhaar nahi hua hai..35 yrs purani film 'garam hawa' aaj bhi utni hi prasangik hai..ittefaaq hi hai ki kal NDTV par 'Saif ali khan' ka interview dekha aur we bata rahe the unhe bhi ghar kharidne me bahut kathinaayee hoti hai..barkha dutt ne jab aashchary se poochha.."sach kah rahe hain aap"..to Saif ne badi sanjidagi se kaha.."its a known fact"
जवाब देंहटाएंये हमारे भीतर की घृणा है जो परदे आदि पर चित्रित होती है. हम किसी समाज के बारे में एक छवि बना लेते हैं और उसी को देखते दिखाते हैं.
जवाब देंहटाएंविचारणीय पोस्ट... प्रस्तुति के लिए आभार
जवाब देंहटाएंविचारणीय पोस्ट... प्रस्तुति के लिए आभार
जवाब देंहटाएंमन को झकझोर ने वाली पोस्ट.
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