बैतूल का रेलवे स्टेशन |
बैतूल से शरद कोकास का रिश्ता कुछ ऐसा ही है। बैतूल से शरद का रिश्ता दरअसल पैदाइशी है। यह छठवें दशक के उत्तरार्द्ध की बात है। आज़ादी के बाद का दशक। उम्मीदों का दशक। बैतूल तब बदनूर भी कहलाता था। गांवों के बीच कस्बाई चीख का बैतूल उभर रहा था। आहिस्ता-आहिस्ता। गोंड राजाओं का किला खेरला में था। वहीं देवी का मंदिर भी था। मंदिर दण्ड का भी स्थान था। अपराधियों की नाक काट दी जाती थी। नकटापन किये गये गुनाहों की चुगली करता रहता था। कोठी (इतवारी ) बाज़ार में हाट भरता था। बिला नागा | इतवार के इतवार | इसी से नाम हुआ इतवारी बाज़ार । शहर के बगल से होकर नदी बहती थी। अभी भी बहती है। माचना नदी | राजधानी भोपाल में शिवाजी नगर के पड़ोस में सम्भ्रांत कॉलोनी है माचना कॉलोनी | माचना नाम इसी से गृहीत है।
बदनूर का वह वक़्त शरद के ज़ेहन में आज भी है। अपने पूरे नूर के साथ। जब घर की नींव की खुदाई हुई तो मिट्टी की पर्तों में हड्डियाँ निकली थीं। थोड़ी दूरी पर तालाब था।तालाब के पास मुसलमानी मोहल्ला। मुसलमानी मोहल्ले के पास ज्योति टॉकीज। दूसरीटॉकीज खुली रघुवीर टॉकीज। शरद के घर के नगीच। इतनी नज़दीक कि फिल्मों के डायलॉग और गाने साफ़ सुनायी दें। बल्कि शरद को कई धांसू डायलॉग और सुरीले गाने कंठस्थ हो गये।शरद कोकास का जन्मगृह ,इतवारी बाज़ार
बदनूर के इर्द-गिर्द गोंडों की बस्तियां थीं। वे बैतूल बाज़ार भी आते थे। झुण्ड के झुण्ड | जिंस बेचने । महुआ, चार जैसी वनोपज लाते और सौन्दर्य व श्रृंगार प्रसाधन लेकर सांझ ढलने के पूर्व लौट जाते। वैसे ही जैसे परिन्दों अपने नीड़ों में लौट जाते हैं। बदनूर में तब गोदने वाले भी खूब आते थे। गोदने का क्रेज था। लोकमान्यता थी कि परिधान अलंकरण सबं छूट जाते हैं। बस, गोदना परलोक में साथ जाता है।
रघुवीर फ़िर प्रभात टाकीज़ अब बंद
बैतूल कभी एक रोड का शहर हुआ करता था। सड़क के दोनों ओर मकान थे। दुकानें थीं। सांझ तक बाज़ार में चहल-पहल रहती | सूरज डूबता तो रौनक सिमट जाती | सन्नाटा पसर जाता | कोठी बज़ार में गूजरी को सब जानते थे। वहां सन् 1942 में 'भारत छोड़ो आंदोलन' में तिरंगा फ़हराया गया था। तिरंगा झण्डा मात्र न था। वह देशभक्ति की उद्दाम आकांक्षा की अभिव्यक्ति था। इकलौती सड़क कमानिया गेट से सदर की तरफ़ जाती थी और लल्ली चौक पर जाकर ख़त्म हो जाती थी। यह सीमेंटेड सड़क बैतूल की शान थी। वहीं लल्ली चौक पर लल्ली होटल था। होटल की जलेबी, समोसा और आलूबोंडा प्रसिद्ध थे। इसी के थोड़ा आगे टाउन हॉल था | इमारत पुरानी थी। आगे तालाब था। उतनी दूर ज्योति टॉकीज थी।
तब
की ज्योति टॉकीज की धज न पूछिये। बहुत जतन से पुराने गोदाम को सिनेमाघर में तब्दील
कर दिया गया था। सिनेमाघर का फ़र्श सड़क के तल से नीचे था। दर्शक सीढ़ियां उतरकर
सिनेमा हॉल में पहुंचते थे और पर्दे पर उभरती सचल सवाक् छवियों को बहुत चाव से देखते
थे।लल्ली चौक में गाजरया आम का ठेला
इसी ज्योति टॉकीज के थोड़ा आगे जाकर बस स्टैंड था। बसें बैतूल को बाहर की दुनिया से जोड़ती थीं। रेलगाड़ी सिर्फ़ दो दिशाओं में जाती थी, जबकि बसें कई दिशाओं में । आवागमन की दुनिया में नये साधन पैठ रहे थे। घोड़े हाशिये में जा रहे थे और बैलगाड़ियां भी दायरे में सिमटकर रही थीं। बिजली के लट्टुओं ने बैतूल को रोशन कर दिया था। रोशनी अब ढिबरी, लालटेन और लैम्प के वृत्तों तक सीमित न थी। यह बात कम लोगों को ज्ञात होगी कि फलों की दुनिया में बैतूल आमों के लिए भी जाना गया। यहां के आमों की गाजरया प्रजाति मशहूर थी। गाजरया आमों से गाजर की महक आती थी। स्वाद आम का, मगर महक गाजर की |
बाबुलालजी वैद्य का औषधालय
शरद के लिए ये सब अब अतीत के चलचित्र हैं। इसके लिए किसी प्रोजेक्टर या पर्दे की ज़रूरत नहीं। बैतूल में तब और भी बहुत कुछ खास, दर्शनीय और क़ाबिले-ज़िक्र था। छोटे शहरों-कस्बों में प्रायः पान की गुमटियां होती हैं, मगर बैतूल में रूपनारायण की पान की भव्य दुकान थी। दुकान के मध्य में पीतल के पतरे पर दो पनवाड़ी बैठे पान लगाते रहते थे। वहां दो बड़े सारस
चित्रित
थे,
जो दुकान को अलग पहचान और आकर्षण देते थे। कोठी बाज़ार में यह
पुरानी दुकानें अभी भी हैं। अब वहां नयी पीढ़ी के दीपक चौरसिया बैठते हैं |
मोहर्रम में शेर नाच
देखते ही बनता था। किशन काका शेर बनते थे। धनक धनका, धनक
तीती... की धुन पर रंग पोते पूंछ और मूंछ लगाये शेर ठुमकता तो समां बंध जाता ।' कमर में साइकिल का रबड़ ट्यूब बांध अगरबत्ती लगा काका का पूरे बैतूल में
घूमने का दृश्य शरद को आज भी याद है। उसे न जाने कितने चेहरे याद हैं...
कृष्णकुमार चौबे, डागा जी... कांतिलाल...। अंग्रेजी के
प्रोफेसर कृष्णकुमार म्यूजिक के शौक़ीन थे। शहर के पहले आर्केस्ट्रा का श्रेय
इन्हीं प्रोफेसर साहब को है। अशोक निनावे और जोसेफ़ इसी आर्केस्ट्रा में थे। शहर
में पहला मेडिकल स्टोर कांतिलाल ने खोला था और पहली ज्वेलरी शॉप डागा जी ने।सोनाघाटी का हनुमान मंदिर
मालवीय प्रिंटिंग प्रेस बैतूल का पहला छापाखाना था। गौस मोहम्मद की सिलाई
मशहूर थी। शहर के लिए वे गौसू टेलर थे। मार्के की फिटिंग और उम्दा सिलाई । किशन
श्रीवास थे तो नाई, लेकिन कहलाते तो किशन काका थे। करीने से
केश काटते और हजामत बनाते। वे पेटी लेकर घर-घर जाते और छोटे-बड़ों का हुलिया संवारते।
जो ग्वालिन दूध देने आती उसका नाम था गोविन्दी। वह गोविन्दी बुआ कहलाती थी। कोई
काका, कोई बुआ... आत्मीयता और सम्मान के संबोधनों की यह
परम्परा अब लुप्त हो चली है। कभी निम्नवर्गीय टिकारी बस्ती में कुम्हार गधे
बहुतायात सें पालते थे। गधे परिवहन और ढुलाई का बड़ा साधन थे। वे दिन आज हवा हुए।
बिला नागा मद्यपान करने वालों की आज बैतूल में कमी नहीं है, लेकिन
उस ज़माने का मद्यप गुच्ची की बात ही निराली थी। वह बैतूल का 'टुंगरूस' था।शहर से बाहर एक मधुशाला
बैतूल अब वह बैतूल नहीं रहा। शरद कहते हैं, “शहर ने गंध और दृश्य ही नहीं, सम्वेदनाएं भी खोयी हैं और अपनत्व भी। बैतूल निजत्व भी खो रहा है। वहां कभी जंगल की मादक गंध आती थी। जलेबी और गुड़ की महक बैतूल की हवा में तैरती थी। बैतूल में अब गोदना गुदाने का भी रिवाज़ पहले-सा न रहा। बैतूल अपनी आदिम गंध खो रहा है, जो इसकी खूबी थी और खूबसूरती भी |
मित्रो, क्या आपके शहर में भी वैसा ही कुछ तो नही हो रहा है ? जो मित्र शरद कोकास के अपने शहर बदनूर यानी बैतूल में हुआ है।
(दुनिया इन दिनों, 6 से 30 अप्रैल, 2017)
आपकी जन्मस्थली बैतूल का बहुत सुन्दर चित्रण है। उस ज़माने में लगभग हर गाँव, क़स्बा और शहर का प्रारूप एक-सा ही होता था। बड़े शहरों की बात अलग थी। शहरीकरण के बाद सचमुच बहुत कुछ बदल गया है। पर आज भी छोटे शहरों में आत्मीयता बची हुई है। आपकी स्मृतियों में इतना कुछ रह गया, बहुत अच्छी बात है। डॉ. सुधीर सक्सेना जी ने बहुत सुदंर लिखा है। आप दोनों को बधाई।
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