11 जून 2020

बैतूल बज़रिये शरद कोकास- डॉ. सुधीर सक्सेना

मुझे विश्वास है यह लेख पढ़कर आपको अपने बचपन का शहर याद आएगा . एक दिन दुनिया इन दिनों पत्रिका के संपादक सुविख्यात कवि डॉ सुधीर सक्सेना मेरे घर आये और मुझसे मेरे जन्म के शहर बैतूल के बारे में ढेर सारी बातें कीं . उन्हींकी कलम से शहर बैतूल की यह दास्तान पढ़िए ..........

बैतूल का रेलवे स्टेशन 
बहुत दिलचस्प है किसी के ज़रिये किसी जगह को जानना। कुछेक यात्राओं से आप किसी शहर को कितना जानते हैं। शहर की पंखुरियां बहुत आहिस्ता-आहिस्ता खुलती हैं। शहर बेसब्र नहीं होते। वे आपके सब्र का इम्तेहान लेते हैं। उसमें क़ामयाब होने पर वे आपको अपने आगोश में ले लेते हैं। बहुधा ऐसा होता है कि एकबारगी आगोश में लेने के उपरांत वे अपनी बांहें इतनी ढीली 
नहीं करते कि आप उसकी गिरफ़्त से छूट जाएं। बल्कि होता यह है कि आगोश में होने का यह अहसास ताउम्र बना रहता है। ठौर-ठिकाना बदलने के बाद भी, चीज़ों के बदलने के बाद भी, शहर से नास्टैल्जिक रिश्ता बना रहता है...

बैतूल से शरद कोकास का रिश्ता कुछ ऐसा ही है। बैतूल से शरद का रिश्ता दरअसल पैदाइशी है। यह छठवें दशक के उत्तरार्द्ध की बात है। आज़ादी के बाद का दशक। उम्मीदों का दशक। बैतूल तब बदनूर भी कहलाता था। गांवों के बीच कस्बाई चीख का बैतूल उभर रहा था। आहिस्ता-आहिस्ता। गोंड राजाओं का किला खेरला में था। वहीं देवी का मंदिर भी था। मंदिर  दण्ड का भी स्थान था। अपराधियों की नाक काट दी जाती थी। नकटापन किये गये गुनाहों की चुगली करता रहता था। कोठी (इतवारी ) बाज़ार में हाट भरता था। बिला नागा | इतवार के इतवार | इसी से नाम हुआ इतवारी बाज़ार । शहर के बगल से होकर नदी बहती थी। अभी भी बहती है। माचना नदी | राजधानी भोपाल में शिवाजी नगर के पड़ोस में सम्भ्रांत कॉलोनी है माचना कॉलोनी | माचना नाम इसी से गृहीत है।

शरद कोकास का जन्मगृह ,इतवारी बाज़ार 
 बदनूर का वह वक़्त शरद के ज़ेहन में आज भी है।   अपने पूरे नूर के साथ। जब घर की नींव की खुदाई  हुई तो मिट्टी की पर्तों में हड्डियाँ निकली थीं। थोड़ी  दूरी पर तालाब था।तालाब के पास मुसलमानी  मोहल्ला। मुसलमानी मोहल्ले के पास ज्योति  टॉकीज। दूसरीटॉकीज खुली रघुवीर टॉकीज। शरद के घर के नगीच। इतनी नज़दीक कि फिल्मों के डायलॉग और गाने साफ़ सुनायी दें। बल्कि शरद को कई धांसू डायलॉग और सुरीले गाने कंठस्थ हो गये।

बदनूर के इर्द-गिर्द गोंडों की बस्तियां थीं। वे बैतूल बाज़ार भी आते थे। झुण्ड के झुण्ड | जिंस बेचने । महुआ, चार जैसी वनोपज लाते और सौन्दर्य व श्रृंगार प्रसाधन लेकर सांझ ढलने के पूर्व लौट जाते। वैसे ही जैसे परिन्दों अपने नीड़ों में लौट जाते हैं। बदनूर में तब गोदने वाले भी खूब आते थे। गोदने का क्रेज था। लोकमान्यता थी कि परिधान अलंकरण सबं छूट जाते हैं। बस, गोदना परलोक में साथ जाता है।

 बाज़ार के छोर पर मिर्ची बाज़ार था। मिर्ची की धांस उड़ती तो छीकों का बाज़ार गरम हो जाता। मिर्ची की इसी तासीर के चलते मिर्ची बाज़ार बिल्कुल अंत में था। बाज़ार सचमुच दिलचस्प ठिकाना था। वहां मिठाइयां भी बिकती थीं और फिल्‍मी गानों की किताबें भी। मुरमुरे और घाना के लड्डू। ये लड्डू इत्ते कड़े होते थे कि उन्हें दांतों के बीच रखकर जोर आज़माइश करनी पड़ती थी। सिनेमाघर की टॉकीज़ टिन की थी। दो आने की टिकट का मतलब था ज़मीन पर आलथी-पालथी मारकर फिल्म देखनी है। उसके पीछे बेंचों की कतार थी और पीछे कुछ ऊंचाई पर बाल्कनी। दिन भर में दो ही खेल (शो) होते थे। फिल्म बीच में रुक जाती थी। मशीन पर रील चढ़ाई जाती तो फिर फिल्म शुरू होती। यह अंतराल चाय-पानी और लघुशंका निवारण के लिए उपयुक्त था। टॉकीज में ऑपरेटर, मैनेजर, गेटकीपर शहर के लिए परिचित चेहरे थे। नायडू नामक दक्षिण भारतीय सज्जन वहां बरसों ऑपरेटर रहे। शरद ने वहां बचपने में खूब फिल्में देखीं। चलचित्र यूं तो आधुनिक श्रव्य-दृश्य माध्यम था। अलबत्ता, कस्बे के लिए वह अनुष्ठान था, लिहाजा फिल्म शुरू होने के पहले आरती होती। जय हो, जय गणेश की आरती के बाद शो शुरू होता। अब रघुवीर टॉकीज़ नहीं रही। वहां शादीघर खुला। वह भी नहीं चला।

रघुवीर फ़िर  प्रभात टाकीज़ अब बंद 

बैतूल कभी एक रोड का शहर हुआ करता था। सड़क के दोनों ओर मकान थे। दुकानें थीं। सांझ तक बाज़ार में चहल-पहल रहती | सूरज डूबता तो रौनक सिमट जाती | सन्नाटा पसर जाता | कोठी बज़ार में गूजरी को सब जानते थे। वहां सन्‌ 1942 में 'भारत छोड़ो आंदोलन' में तिरंगा फ़हराया गया था। तिरंगा झण्डा मात्र न था। वह देशभक्ति की उद्दाम आकांक्षा की अभिव्यक्ति था। इकलौती सड़क कमानिया गेट से सदर की तरफ़ जाती थी और लल्ली  चौक पर जाकर ख़त्म हो जाती थी। यह सीमेंटेड सड़क बैतूल की शान थी। वहीं लल्ली चौक पर लल्ली होटल था। होटल की जलेबी, समोसा और आलूबोंडा प्रसिद्ध थे। इसी के थोड़ा आगे टाउन हॉल था | इमारत पुरानी थी। आगे तालाब था। उतनी दूर ज्योति टॉकीज थी।

तब की ज्योति टॉकीज की धज न पूछिये। बहुत जतन से पुराने गोदाम को सिनेमाघर में तब्दील कर दिया गया था। सिनेमाघर का फ़र्श सड़क के तल से नीचे था। दर्शक सीढ़ियां उतरकर सिनेमा हॉल में पहुंचते थे और पर्दे पर उभरती सचल सवाक्‌ छवियों को बहुत चाव से देखते थे।

लल्ली चौक में गाजरया आम का ठेला 

इसी ज्योति टॉकीज के थोड़ा आगे जाकर बस स्टैंड था। बसें बैतूल को बाहर की दुनिया से जोड़ती थीं। रेलगाड़ी सिर्फ़ दो दिशाओं में जाती थी, जबकि बसें कई दिशाओं में । आवागमन की दुनिया में नये साधन पैठ रहे थे। घोड़े हाशिये में जा रहे थे और बैलगाड़ियां भी दायरे में सिमटकर रही थीं। बिजली के लट्टुओं ने बैतूल को रोशन कर दिया था। रोशनी अब ढिबरी, लालटेन और लैम्प के वृत्तों तक सीमित न थी। यह बात कम लोगों को ज्ञात होगी कि फलों की दुनिया में बैतूल आमों के लिए भी जाना गया। यहां के आमों की गाजरया  प्रजाति मशहूर थी। गाजरया आमों से गाजर की महक आती थी। स्वाद आम का, मगर महक गाजर की |

 सन्‌ 70 के दशक में बहुत कुछ हुआ। यह दशक बैतूल में नया दौर लाया। नेहरू उद्यान बना। उद्यान में पं. नेहरू की प्रतिमा लगी। भूमि पर भारत का मानचित्र उकेरा गया। नक़्शा ऐसा कि नदियों को पनालियों से दर्शाया गया। इन पनालियों में पानी बहता तो मानचित्र दर्शनीय हो उठता। बच्चों के लिए आकर्षण के साथ ही ज्ञानवर्द्धक भी।

 बैतूल में सदर चिकित्सालय काफ़ी पहले अस्तित्व में आ चुका था। उससे अलग दो ख्यातनाम चिकित्सक थे। डॉ. वी एम जौहरी और मुनि बाबूलाल वैद्य। दोनों के दवाखाने खूब चलते थे। मुनि बाबूलाल का औषधालय सन्‌ 1957 में खुला था। सामने अस्पताल था और पीछे रिहायशी कमरे। जड़ी-बूटियों से उपचार होता था और वहां नेति, जलोपचार आदि की व्यवस्था थी। इलाज प्रायः निशुल्क होता था। और तो और वैद्य साहब बहिरागत रोगियों को पकाने-खाने के लिए अनाज भी दिया करते थे। वे बापू कहलाते थे। सम्मान की कोख से उपजा था यह सम्बोधन। सन्‌ 1965 में बापू का देहान्त हुआ। 31  जनवरी, 1965 को अंत्येष्टि में लोग उमड़ पड़े। अंतिम संस्कार - तेरहवीं आदि पर कोई व्यय नहीं हुआ। सारा सामान मुफ़्त में आ गया।

बाबुलालजी वैद्य का औषधालय 

शरद के लिए ये सब अब अतीत के चलचित्र हैं। इसके लिए किसी प्रोजेक्टर या पर्दे की ज़रूरत नहीं। बैतूल में तब और भी बहुत कुछ खास, दर्शनीय और क़ाबिले-ज़िक्र था। छोटे शहरों-कस्बों में प्रायः पान की गुमटियां होती हैं, मगर बैतूल में रूपनारायण की पान की भव्य दुकान थी। दुकान के मध्य में पीतल के पतरे पर दो पनवाड़ी बैठे पान लगाते रहते थे। वहां दो बड़े सारस

चित्रित थे, जो दुकान को अलग पहचान और आकर्षण देते थे। कोठी बाज़ार में यह पुरानी दुकानें अभी भी हैं। अब वहां नयी पीढ़ी के दीपक चौरसिया बैठते हैं |

 शरद के मुताबिक बैतूल के बाज़ार की एक खूबी थी कि वहां व्यापारी आदिवासियों से वनोपज औने-पौने दामों पर नहीं, बल्कि वाजिब कीमतों पर खरीदते थे। बाजार में डंडीमारों का भी अस्तित्व न था। आदिवासी उम्मीद से आते और खुशी-खुशी जाते। घर में चौपाल थी और चौपाल में रोजाना बिला नागा मानस का पाठ होता था। शरद बताते हैं, “दादा सुन्दरलाल कोकास की यह परम्परा ताऊ मदनमोहन ने जारी रखी। उत्तर प्रदेश से रामलीला मंडली आती थी। आखिरी दिन भव्य शोभायात्रा निकलती थी। ताऊजी देवी (काली माई ) का रूप धरते थे। बाबा (वाघ) राक्षस बनते थे। 

मोहर्रम में शेर नाच देखते ही बनता था। किशन काका शेर बनते थे। धनक धनका, धनक तीती... की धुन पर रंग पोते पूंछ और मूंछ लगाये शेर ठुमकता तो समां बंध जाता ।' कमर में साइकिल का रबड़ ट्यूब बांध अगरबत्ती लगा काका का पूरे बैतूल में घूमने का दृश्य शरद को आज भी याद है। उसे न जाने कितने चेहरे याद हैं... कृष्णकुमार चौबे, डागा जी... कांतिलाल...। अंग्रेजी के प्रोफेसर कृष्णकुमार म्यूजिक के शौक़ीन थे। शहर के पहले आर्केस्ट्रा का श्रेय इन्हीं प्रोफेसर साहब को है। अशोक निनावे और जोसेफ़ इसी आर्केस्ट्रा में थे। शहर में पहला मेडिकल स्टोर कांतिलाल ने खोला था और पहली ज्वेलरी शॉप डागा जी ने।

सोनाघाटी का हनुमान मंदिर 

 बदनूर में तब राममंदिर था और कृष्णमंदिर भी | दोनों मंदिर स्वच्छता की मिसाल थे। सोनाघाटी में रामभक्त हनुमान मंदिर भी था ।मंदिर की दीवारों पर सम्पूर्ण हनुमान चालीसा पेन्ट थी। कालापाठा में तब जंगल हुआ करता था। गंज में गला मंडी थी। वहीं गैरेज थे । बाहर से आया सामान वहीं अनलोड होता था। सदर किंचित्‌ फ़ासले पर था। मगर अब यह सब एक बड़े विस्तार में समाहित है। टाउन हॉल और कमानिया गेट ब्रिटिश क़ालीन थे। गंज से कोठी बाज़ार तक का रास्ता तब निर्जन था। अब वह जनसंकुल है। सन्‌ 70 के ही दशक में पुराने बस स्टैंड के सामने क्रिश्चन ईएलसी होस्टल बना। नौ किमी दूर स्थापित पाढर अस्पताल की ख्याति दूर तलक थी। 

मालवीय प्रिंटिंग प्रेस बैतूल का पहला छापाखाना था। गौस मोहम्मद की सिलाई मशहूर थी। शहर के लिए वे गौसू टेलर थे। मार्के की फिटिंग और उम्दा सिलाई । किशन श्रीवास थे तो नाई, लेकिन कहलाते तो किशन काका थे। करीने से केश काटते और हजामत बनाते। वे पेटी लेकर घर-घर जाते और छोटे-बड़ों का हुलिया संवारते। जो ग्वालिन दूध देने आती उसका नाम था गोविन्दी। वह गोविन्दी बुआ कहलाती थी। कोई काका, कोई बुआ... आत्मीयता और सम्मान के संबोधनों की यह परम्परा अब लुप्त हो चली है। कभी निम्नवर्गीय टिकारी बस्ती में कुम्हार गधे बहुतायात सें पालते थे। गधे परिवहन और ढुलाई का बड़ा साधन थे। वे दिन आज हवा हुए। बिला नागा मद्यपान करने वालों की आज बैतूल में कमी नहीं है, लेकिन उस ज़माने का मद्यप गुच्ची की बात ही निराली थी। वह बैतूल का 'टुंगरूस' था।

शहर से बाहर एक मधुशाला 

बैतूल अब वह बैतूल नहीं रहा। शरद कहते हैं, शहर ने गंध और दृश्य ही नहीं, सम्वेदनाएं भी खोयी हैं और अपनत्व भी। बैतूल निजत्व भी खो रहा है। वहां कभी जंगल की मादक गंध आती थी। जलेबी और गुड़ की महक बैतूल की हवा में तैरती थी। बैतूल में अब गोदना गुदाने का भी रिवाज़ पहले-सा न रहा। बैतूल अपनी आदिम गंध खो रहा है, जो इसकी खूबी थी और खूबसूरती भी |

मित्रो, क्या आपके शहर में भी वैसा ही कुछ तो नही हो रहा है ? जो मित्र शरद कोकास के अपने शहर बदनूर यानी बैतूल में हुआ है।

(दुनिया इन दिनों, 6 से 30 अप्रैल, 2017)

 शरद कोकास 

 


 


 

1 टिप्पणी:

  1. आपकी जन्मस्थली बैतूल का बहुत सुन्दर चित्रण है। उस ज़माने में लगभग हर गाँव, क़स्बा और शहर का प्रारूप एक-सा ही होता था। बड़े शहरों की बात अलग थी। शहरीकरण के बाद सचमुच बहुत कुछ बदल गया है। पर आज भी छोटे शहरों में आत्मीयता बची हुई है। आपकी स्मृतियों में इतना कुछ रह गया, बहुत अच्छी बात है। डॉ. सुधीर सक्सेना जी ने बहुत सुदंर लिखा है। आप दोनों को बधाई।

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