2 दिसंबर 2009

भोपाल स्टेशन पर मेरे लिये मौत की ट्रेन दो घंटे पीछे चल रही थी उस दिन



2 दिसम्बर 1984 ..का वह दिन । एक सप्ताह से मैं भोपाल में अपने रंगकर्मी व कवि मित्र सुरेश स्वप्निल के साथ आवारागर्दी कर रहा था ..। ओपन एयर थियेटर..भारत भवन में बावा कारंत का नाटक..श्यामला हिल्स की ठंडी हवाएँ... ..रीजनल कॉलेज के अपने दोस्त...मार्क्सवाद और फ्राइड पर बहस ...छोटे तालाब में बोटिंग ...न्यू मार्केट में मटरगश्ती...इब्राहिमपुरे के पटिये... स्टोनवाश की जींस...रंगमहल में दोपहर के शो में चार्ली चैपलीन की फिल्म ... वगैरह वगैरह बदमस्तियाँ चल ही रही थीं कि अचानक दोपहर में मैने ऐलान कर दिया .. छत्तीसगढ एक्सप्रेस से वापस जा रहा हूँ । हमारी दोस्ती में रोकने का तरीका एक ही था बैग से कपड़े और सामान निकालकर इधर उधर फेंक दिये जायें ताकि ट्रेन के समय तक उन्हे बटोरा नहीं जा सके और जाना कैंसल हो जाये ।
लेकिन उस दिन सुरेश ने मुझे नहीं रोका इसलिये कि उसे पता था यह फुरसतिया है ,और इतना प्यारा दोस्त है कि आठ-दस रोज़ बाद फिर आ जायेगा । मैं भोपाल स्टेशन पहुंचा , टिकट कटाई और छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस के जनरल डिब्बे में ठँसकर दुर्ग आ गया । दूसरे दिन शाम तक तो यह खबर पूरी दुनिया में फैल चुकी थी कि भोपाल में यूनियन कार्बाइड की फैक्टरी से मिथाइल आइसो सायनाइट नामक ज़हरीली गैस का रिसाव पिछली रात नौ बजे से शुरू हुआ जो पूरी रात जारी रहा और जिसमें भोपाल के हज़ारों लोग मारे जा चुके हैं । सुरेश के बुधवारा वाले मकान के मकान मालिक का फोन नम्बर मेरे पास था ,मैने बहुत कोशिश की लेकिन फोन लगा ही नहीं , पता चला कि पी.एण्ड टी. कॉलोनी के तो सारे लोग गैस से मर चुके हैं एक्स्चेंज में कोई है ही नहीं तो  फोन लगेगा कैसे ?
दूसरे दिन भी सुरेश से सम्पर्क की असफल कोशिश के बाद, आखिर रहा नहीं गया तो भोपाल के लिये रवाना हो गया .. बस ,जैसे तैसे  स्टेशन पहुंचा , पास में कोई सामान नहीं था,  ट्रेन खड़ी थी, टिकट कटाई और जनरल डिब्बे में ऊपर सामान रखने की  रैक पर बैठकर जागते हुए सुबह छह बजे भोपाल पहुंच गया । स्टेशन से पैदल चलकर दिसम्बर की धुन्ध का पर्दा चीरते हुए बुधवारा सुरेश के यहाँ पहुंचा .. उसने दरवाज़ा खोला और तुरंत मुझे गले लगाकर कहा “ ज़िन्दा हैं यार ।“ इस खुशी में कुछ देर तक हम दोनो लिपटकर रोते रहे फिर मैने कहा “ चलो शहर के हालात देखते हैं । “ सबसे पहले हम लोग यूनियन कार्बाइड कारखाने के आसपास के क्षेत्र में गये । आसपास की सारी झुग्गी झोपड़ियाँ खाली थीं । गैस कांड के समय काफी लोग उस जगह से भाग कर सुरक्षित जगह चले गये थे , जो नहीं जा पाये थे उनकी लाशें दूसरे दिन उठाई गईं । कुछ लोग लौटकर आ गये थे और अपने परिजनों की तलाश कर रहे थे । सड़क के किनारे एक भैंस की लाश पड़ी थी जिसे निगम वाले क्रेन से उठाने की कोशिश कर रहे थे कि अचानक उसका पेट फट गया और गैस और अंतड़ियों की दुर्गन्ध फैल गई । ऊफ.... । वहाँ से आगे बढे हम लोग । पूछने पर पता चलता शायद ही कोई ऐसा घर होगा जहाँ किसी न किसी की मौत न हुई हो ।
अचानक पी.एण्ड.टी कॉलोनी के पास से गुजरते हुए याद आया कि दुर्ग स्टेशन पर एक मित्र छोटू ने कहा था..भाईजान   भोपाल जा रहे हो वहाँ पी.एण्ड टी. कॉलोनी में मेरे एक रिश्तेदार रहते हैं कदीर अहमद ..हो सके तो..। हम लोग उसी कॉलोनी के भीतर थे ,कदीर अहमद का मकान मिल गया .. हम उन्हे देख रहे थे लेकिन घर का कोई सदस्य हमें नहीं देख पा रहा था , गैस की वज़ह से सभी की आँखें सूजी हुई थी । अचानक याद आया ..अरे आज तो ईदे-मिलादुन्नबी है.. मैने जैसे ही आदतन "ईद मुबारक " कहा वे फूट फूट कर रोने लगे ।पता चला कि उस घर के बाकी लोग तो बच गये थे लेकिन बुज़ुर्ग जो भाग नहीं पाये थे वे बच नहीं पाये थे ।और कमोबेश हर घर का यही हाल था । सबसे ज़्यादा मारे गये वे ग़रीब जो खुले में रहते थे । जो लोग बन्द कमरों मे सो रहे थे वे बच गये । हाँलाकि कौन बच गया और कौन नहीं बच सका इसका कोई मापदंड नहीं था । कुछ लोग आँख में जलन की वज़ह से पानी के छींटे मारते रहे सो गैस के पानी में घुलनशील होने की वज़ह से बच गये । कुछ लोग भागकर सुरक्षित स्थानो पर चले गये सो बच गये तो कुछ भागने के कारण ज़्यादा गैस साँस के साथ लेने की वज़ह से मर गये ..। सब कुछ गड्डमडड हो रहा था .. लोग इतने असहाय थे  कि किसीकी समझ मे यह नहीं आ रहा था कि इन मौतों का असली ज़िम्मेदार तो यह मल्टीनेशनल है ..यह यूनियन कार्बाइड का खूनी कारखाना ।
वापस लौटते हुए मैं भी सिर्फ अपने बारे में सोच रहा था ...मान लो दो दिसम्बर की उस  शाम, सात बजे छूटने वाली छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस दो घंटे लेट हो जाती तो ? .... क्योंकि सुना तो यही था कि रात नौ बजे के बाद उस स्टेशन  पर कोई ज़िन्दा नहीं बचा था यहाँ तक कि स्टेशन मास्टर हरीश धुर्वे भी...।
मित्रों .. अगर ऐसा होता तो आप लोग कैसे जान पाते कोई शरद कोकास भी था ......आप  भी यही कहेंगे ना .. हमसे मिलना था इसलिये बच गये ??? (चित्र  1-कमला पार्क से भोपाल ताल का नज़ारा  2-यूनियन कार्बाइड कारखाना 3-गैसपीड़ित 4-भोपाल स्टेशन का प्लेट्फॉर्म नम्बर एक जहाँ मैने मौत से रेस जीती ::: गूगल व कैमरा-ए-कोकास से साभार )

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23 टिप्‍पणियां:

  1. बस किस्से ही सुना हूं बड़ों से उस त्रासदी के.. मगर जो कुछ भी सुना हूं वह हृदयविदारक है..

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  2. हम तो बस इतना कहेंगे..जाके राखो साईंया, मार सके न कोय.

    आप इस भीषण त्रासदी के इतने करीब से गुजरे..सोच कर दिल धक करके रह गया.

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  3. अत्यंत मार्मिक आख्यान
    जी हाँ! फिर हम कैसे कह पाते कि ---

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  4. कुछ समझ में नहीं आ रहा कि क्या कहा जाये! यही मानकर खुश हो लिये कि फ़ुरसतिया है तो प्यारा भी होगा।

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  5. बहुत अच्छा संस्मरण। हमसे मिलना था इसलिये ..

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  6. बेहद दुखद घटनाक्रम था वह

    कहते है ना - जाको राखे ... मार सके ना कोय

    बी एस पाबला

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  7. जाको राखे साईयां मार सके ना कोई .. वैसे रोंगटे खडे कर देने वाला संस्‍मरण है ये .. कैसे छटपटाकर मौत को गले लगाया होगा सबने .. उन्‍हें श्रद्धांजलि !!

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  8. २५ साल बाद भी बिल्कुल वैसे ही याद है जैसे हुआ होगा। और लिखिये न

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  9. बहुत ही दुखदायी...सुना था...आज आपने तो जैसे वहां के दर्शन ही करा दिए.....

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  10. राखिहै राम तो लेजिहै कौन?
    लेजिहै राम तो राखिहै कौन?

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  11. 25 साल बाद...
    यूनियन कार्बाइड ने नाम बदल कर दुनिया में अपना कामकाज जारी रखा...

    हमारी सरकार का विदेशी और एमएनसी के लिए मोह और बढ़ गया...

    जय हिंद...

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  12. इसी को चमत्कार कहते हैं.हम उस वक्त अपनी मौसी की बेटी की शादी में ललितपुर में थे. उम्र बचपने की थी, सो मामले को बहुत गम्भीरता से नहीं लिया, लेकिन कुछ दिनों बाद ही गम्भीरता समझ में आ गई.

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  13. ज्यादा कुछ याद बस इतना याद है कि दिल्ली में भी तरह तरह की अफवाह फैल गई थी और हमारे स्कूल की छुट्टी हो गई थी। पर बाद में एक दो बार जंतर मंतर पर कुछ लोगो से मिला। और पेपरों में पढा तो जाना कितनी भयानक घटना घटी थी।

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  14. शरद जी / हमारे बुजुर्ग ऐसी स्थिति मे कहते है भैया न जाने कौनसे पुण्य आडे आ गये ।इसे भाग्य न कहा जाये तो क्या कहा जाये हालांकि तार्किक लोग इत्तेफ़ाक कह सकते है

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  15. इन २५ साल मै उन पीडितो के लिये तो कुछ नही बदला, हां लेकिन हमारे टुच्चे नेताऒ का, ओर भर्षट आधिकारियो की जेब जरुर भर गई होगी, बाकी खुश दीप भाई की टिपण्णी से सहमत है

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  16. इसिलिए कहा है-
    "गर खुदा को है रोशनी मंजुर, तो आंधियों मे भी चिराग जलते हैं",
    शरद भाई-25 साल पहले इस दुर्घटना पर मैने एक कविता भी लिखी थी जो किसी अखबार मे छपी भी थी, आज उसे ढुंढ रहा था नही मिली,

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  17. मान गए शरदजी लेखन की ये नई शैली इजाद कर दी। अपनी भी सुना दी हालात भी बयां कर दी। अद्भू...शानदार...काबिलेतारीफ

    dharmendrabchouhan.blogspot.com

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