27 सितम्बर भगतसिंह के जन्मदिन पर
क्रांतिकारियों को सम्मान देने की परम्परा में जिस तरह हमारे स्वतंत्रता संग्राम के अन्य सेनानियों का सम्मान किया जाता है एवं उनका स्मरण किया जाता है , भगतसिंह का परिचय भी उसी तरह केवल एक स्वतंत्रता सेनानी या समाजवादी क्रान्तिकारी के रूप में दिया जाता है । एक मार्क्सवादी विचारक व चिंतक के रूप में भगतसिंह के परिचय से या तो हम अनजान हैं या अनजान रहना चाहते हैं । यहाँ तक तो फिर भी ठीक है लेकिन भगतसिंह के व्यक्तित्व का एक तीसरा पक्ष भी है जो उनके लेख “ मैं नास्तिक क्यों हूँ “ कि वज़ह से प्रकाश में आया । इस पक्ष से लगभग देश का बहुत बड़ा वर्ग अनजान है ।
भगतसिंह के व्यक्तित्व के इस पक्ष के अप्रकाशित रहने का सबसे बड़ा कारण इस पक्ष से किसी भी व्यकि को उसका राजनैतिक लाभ न होना है । भगतसिंह की मार्क्सवादी विचारधारा का एक वर्ग उल्लेख तो करता है लेकिन उनके नास्तिक होने न होने से किसीको कोई फ़र्क नहीं पड़ता है । भगत सिंह की मृत्यु 23 वर्ष की उम्र में हुई इस बात का उल्लेख केवल इसी संदर्भ में किया जाता है कि इतनी कम उम्र में उनके भीतर स्वतंत्रता प्राप्ति की आग थी और जोश था लेकिन उनके नास्तिक होने को लेकर यही उम्र अपरिपक्वता के सन्दर्भ में इस्तेमाल की जाती है । ऐसा कहा जाता है कि इस उम्र में भी धर्म या ईश्वर को लेकर कहीं कोई समझ बनती है , या भगतसिंह के संदर्भ में ज़्यादा से ज़्यादा यह कहा जाता है कि यदि भगतसिंह जीवित रहते तो वे भी पूरी तरह आस्तिक हो जाते ।
इस तरह से भगतसिंह के नास्तिक होने का बहुत गैरज़िम्मेदाराना ढंग से उल्लेख कर दिया जाता है । लेकिन यदि भगतसिंह का लेख “ मैं नास्तिक क्यों हूं “ पढ़ा जाए तो वह इस विषय में बहुत सारे प्रश्नों के उत्तर देता है । भगतसिंह ने यह लेख न किसी अहंकार में लिखा न ही उम्र और आधुनिकता के फेर में । वे इस लेख में धर्म और नास्तिकवाद की विवेचना के साथ साथ पूर्ववर्ती क्रान्तिकारियों की धर्म व ईश्वर सम्बन्धी धारणा का उल्लेख भी करते है । भगतसिंह ने इस बात का आकलन किया था कि उनके पूर्ववर्ती क्रांतिकारी अपने धार्मिक विश्वासों में दृढ़ थे । धर्म उन्हें स्वतन्त्रता के लिये लड़ने की प्रेरणा देता था और यह उनकी सहज जीवन पद्धति में शामिल था ।
यह लोग उन्हें गुलाम बनाने वाले साम्राज्यवादियों से धर्म के आधार पर घृणा नहीं करते थे , इसलिये कि वास्तविक स्वतंत्रता का अर्थ वे जानते थे और धर्म तथा अज्ञात शक्ति में विश्वास उन्हे स्वतंत्रता हेतु लड़ने के लिए प्रेरित करता था । इसके विपरीत साम्राज्यवादियों ने धर्म और ईश्वर में श्रद्धा को उनकी कमज़ोरी माना और इस आधार पर उनमें फूट डालने का प्रयास किया । इतिहास इस बात का गवाह है कि वे इसमें सफल भी हुए ।
भगतसिंह तर्क और विवेक को जीवन का आधार मानते थे । उनकी मान्यता थी कि धर्म और ईश्वर पर आधारित जीवन पद्धति मनुष्य को शक्ति तो अवश्य देती है लेकिन कहीं न कहीं किसी बिन्दु पर वह चुक जाता है । इसके विपरीत नास्तिकता व भौतिकवाद मनुष्य को अपने भीतर शक्ति की प्रेरणा देता है । इस शक्ति के आधार पर उसके भीतर स्वाभिमान पैदा होता है और वह किसी प्रकार के समझौते नहीं करता है । भगतसिंह इस बात को भी समझ गए थे कि धर्म का उपयोग सत्ताधारी शोषण हेतु करते हैं । यह वर्गविशेष के लिए एक हथियार है और वे ईश्वर का अनुचित उपयोग आम जनता में भय के निर्माण हेतु करते हैं ।
इस लेख में भगतसिंह इस बात को स्वीकार करते हैं कि वे प्रारम्भ में नास्तिक नहीं थे । उनके दादा व पिता आर्यसमाजी थे और प्रार्थना उनके जीवन का एक अंग था । जब उन्होनें क्रांतिकारियों का साथ देना शुरू किया तब वे सचिन्द्रनाथ सान्याल के सम्पर्क में आए जो स्वयं आस्तिक थे । काकोरी कांड के क्रांतिकारियों को भी उन्होनें देखा कि वे अन्तिम दिन तक प्रार्थना करते रहे । रामप्रसाद बिस्मिल आर्यसमाजी थे तथा राजन लाहिरी साम्यवाद का अध्ययन करने के बावज़ूद गीता पढ़ते थे ।
भगतसिंह कहते हैं कि इस समय तक वे भी आदर्शवादी क्रांतिकारी थे लेकिन फिर उन्होनें अध्ययन की शुरुआत की । उन्होनें बाकनिन को पढ़ा , मार्क्स को पढ़ा । फिर उन्होने लेनिन व ट्राटस्की के बारे में पढ़ा , निर्लंब स्वामी की पुस्तक “ कॉमन सेन्स “ पढ़ी । इस बात को सभी जानते हैं कि वे फ़ाँसी के तख्ते पर जाने से पूर्व भी अध्ययन कर रहे थे । इस तरह बुद्ध , चार्वाक आदि विभिन्न दर्शनों के अध्ययन के पश्चात अपने विवेक के आधार पर वे नास्तिक बने ।
यद्यपि इस बात को लेकर उनकी अपने साथियों से बहस भी होती थी । 1927 में जब लाहौर में उन्हें गिरफ़्तार किया गया तब उन्हें यह हिदायत भी दी गई कि वे प्रार्थना करें । उनका तर्क था कि नास्तिक होना आस्तिक होने से ज़्यादा कठिन है । आस्तिक मनुष्य अपने पुनर्जन्म में सुख भोगने की अथवा स्वर्ग में सुख व ऐश्वर्य प्राप्त करने की कल्पना कर सकता है । किंतु नास्तिक व्यक्ति ऐसी कोई झूठी कल्पना नहीं करता । वे जानते थे कि जिस क्षण उन्हे फ़ांसी दी जाएगी और उनके पाँवों के नीचे से तख्ता हटाया जाएगा वह उनके जीवन का आखरी क्षण होगा और उसमे बाद कुछ शेष नहीं बचेगा । वे सिर्फ अपने जीवन के बाद देश के स्वतंत्र होने की कल्पना करते थे और स्वयं के जीवन का यही उद्देश्य भी मानते थे ।
भगत सिंह ने यह लेख जेल में रहकर लिखा था और यह 27 सितम्बर 1931 को लाहौर के अखबार “ द पीपल “ में प्रकाशित हुआ । इस लेख में भगतसिंह ने ईश्वर कि उपस्थिति पर अनेक तर्कपूर्ण सवाल खड़े किये हैं और ऐतिहासिक भौतिकवाद के अनुसार इस संसार के निर्माण , मनुष्य के जन्म , मनुष्य के मन में ईश्वर की कल्पना के साथ साथ संसार में मनुष्य की दीनता , उसके शोषण , दुनिया में व्याप्त अराजकता और और वर्गभेद की स्थितियों का भी विश्लेषण किया है । भगतसिंह को अगर सम्पूर्ण रूप में जानना है तो यह लेख पढ़ना आवश्यक है ।
बेहद सार्थक लेख ..बहुत अच्छा लगा भगत सिंह के बारे में ये जानकारी पाना .वाकई नास्तिक बनकर जीना आस्तिक बनकर जीने से कहीं ज्यादा कठिन है ..आस्तिक बनकर हम भगवन के भरोसे बहुत से काम छोड़ दिया करते हैं.
जवाब देंहटाएंअति सुंदर लेख, भगत सिंह जी को श्रद्धा पुरण नमन
जवाब देंहटाएंभागतसिंह का नाम फ़िज़ाओं में है...
जवाब देंहटाएंपर उनके विचारों का तेज़ अभी धूमिल है...
बेहतर प्रस्तुति...इसी हेतु...
अमर शहीद भगत सिंह के लिए शब्दांजलि की सुंदर प्रस्तुति पर बधाई. कृपया पधारें - बुलबुलें कुर्बान होती हैं चमन के वास्ते .
जवाब देंहटाएंswaraj-karun.blogspot.com
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंभगत सिंह को पढ़ने के लिए शांत और साफ दिल चाहिए। उन्हें पढ़ना न ही कोई क्रांतिकारी के बारे में है पढ़ना है, न ही किसी समाजवादी के बारे में....उन्हें पढ़ना है जीवन का वो दर्शन जिससे कोई राष्ट्रभक्त राष्ट्र के लिए कर्म का संदेश ग्रहण करे। हर चीज को एक चरम होता है औऱ भगत सिह को जानना उस चरम की तरफ बढ़ने के रास्ते में एक मील का पत्थर। धर्म कहां आकर गौण हो जाता है कहां आकर कर्म उससे बड़ा हो जाता है और गीता बन जाता है ये भगत सिंह से बेहतर कोई नहीं बता सकता युवाओं को।
जवाब देंहटाएंभगत सिंह के बारे में यह अनसुलझा पक्ष है .....गंभीरता से इसकी भी पड़ताल होनी चाहिए !
जवाब देंहटाएं
जवाब देंहटाएंबेहतरीन पोस्ट लेखन के बधाई !
आशा है कि अपने सार्थक लेखन से,आप इसी तरह, ब्लाग जगत को समृद्ध करेंगे।
आपकी पोस्ट की चर्चा ब्लाग4वार्ता पर है-पधारें
अत्यंत सुन्दर लेख! भगत सिंह को शत शत नमन और श्रधांजलि! बेहतरीन प्रस्तुती!
जवाब देंहटाएंउस चिर युवा को शत-शत नमन!
जवाब देंहटाएंआपका लेख पध कर अच्छा लगा
जवाब देंहटाएंबहुत सार्थक आलेख है। मुझे गर्व है कि मै उस देश की हूँ जहाँ भगत सिंह जैसे शहीद हुये हैं। उनके बारे मे एक एक शब्द सत्य है। उनको शत शत नमन। आभार।
जवाब देंहटाएंभगत सिंह को सम्पूर्ण रूप से समझने के लिए यह लेख पढना सचमुच बहुत आवश्यक है...
जवाब देंहटाएंनास्तिक होना,आस्तिक होने से कहीं ज्यादा कठिन है..
शानदार प्रस्तुति .......
जवाब देंहटाएंपढ़िए और मुस्कुराइए :-
जब रोहन पंहुचा संता के घर ...
भगत सिंह के व्यक्तित्व के अनन्य पहलू को आपने उजागर किया - साधुवाद.
जवाब देंहटाएंवस्तुत: ये मेरा निजी विचार है कि क्रांतिकारी आस्तिक नहीं हो सकते. - और इसमें बुरा भी किया है.
एक आस्तिक होने से क्रांतिकारी होना ज्यादा अच्छा है.
.
जवाब देंहटाएंभगत सिंह का ओजस्वी व्यक्तित्व हमारे लिए प्रेरणाप्रद है। शहीदों के बारे में जानकारी हिंदी पाठ्यक्रम में शामिल करनी चाहिए। जिससे हमारी आने वाली संतति अपने गौरवमयी इतिहास पर गर्व कर सकें और उनसे प्रेरणा लें।
.
aur kaii comments padhkar ap aur bhi nirash hue honge...Bhagat Singh ke naam se kaii filmi dialogue tak sms kiye ja rahe hain.
जवाब देंहटाएंdharm ka upyog sttadhari shoshn ke liye krte the ye us smy bhi utna hi bda sach tha jitna ki aaj hai .ye sthiti bhut hi trasdipoorn hai .
जवाब देंहटाएंgyanvrdhak post ke liye dnywaad .
bhagat singh ke mata pita dono hi saahsi rahe tabhi wo itne mahan the .maa to rajsi gharane ki rahi.bahut sundar lekh raha ,unki to sada hi jai jai kaar hai . shat shat naman us veer purush ko .
जवाब देंहटाएंsharad ji
जवाब देंहटाएंvastav me aapka yah lekh ko padh kar aadrniy bhagat singh ji ke baare me vistrit jankari mili.sach me yah lekh hame bahut si baato
se avgat karata hai jinse shayad bahut se log anjaan honge.bahut hi badhiya prastuti.
poonam
Bhagat singh jee ka ya unke sathiyon ka ye kahana ki nastik hona aastik hone se jyada kathin hai muze bhee sahee lgta hai. Isme apne aap men ek atoot wishwas aur sahas hona jaroori hai jo unme tha. Anek grantho ke pathan pathan ke bad unaki ye dharana banee yah bhee mahatw poorn hai. Unaki soch aparipakw nahee balki kafee manan chintan ke bad banee thee. Is shandar lekh ke liye badhaee.
जवाब देंहटाएं